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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
पर ( मणुभवं ) मनुष्यभव-मानवजन्म (लभंति) पाते हैं (तत्थ विय) तो भी वहां पर ( नीच कुलसमुप्पणा) नीच कुल में पैदा होते हैं, (अणारिया ) अनार्य ( भवंता ) होते हैं, ( आरियजणे वि) कदाचित् आर्यमनुष्यों में जन्म ले लें तो भी . ( लोकबज्झा) लोगों से बहिष्कृत (य) और (तिरिक्खभूया) पशुओं के जैसे ( अकुसला) कुशलता से रहित विवेकहीन - जड़मूढ़, ( कामभोगतिसिया ) कामभोगों को अत्यधिक लालसा वाले होते हैं । (ज) जहाँ (निरयवत्तणिभवप्पवंचकरणपणोल्लिया) नरक गति में अनेकों जन्म मरण करने के कारण उसी नरक गमन के योग्य पापकर्म की प्रवृत्ति से प्रेरित होते हैं, (पुणोवि ) फिर ( संसारावत्तणेममूले) संसार – जन्ममरण के चक्र में परिभ्रमण कराने के मूल कारण दुःखजनक अशुभ कर्मों का ( निबंधंति) दृढ़ बन्धन करते हैं तथा ( धम्मसुतिविवज्जिया ) धर्मशास्त्र के श्रवण और ज्ञान से रहित ( अणज्जा ) अनार्य श्र ेष्ठ आचरणों से दूर (कुरा) क्रूर (य) और (मिच्छत्तसुतिपन्ना) मिथ्यात्व के प्रतिपादक शास्त्र को स्वीकार करने वाले ( एगंत दंड रुइणो ) सर्वथा दण्डशक्ति - हिंसा में ही रुचि - आस्था रखने वाले (कोसिकाकार कीडोव्व) रेशम के कीड़े के समान, (अट्ठकम्मतंतुघणबंधणेण ) आठ कर्मरूपी तंतुओं के गाढ़ बंधन से ( अप्पi) अपनी आत्मा को, (वेढेंता) जकड़ लेते हैं लपेट लेते हैं । ( एवं ) इस प्रकार (उत्तत्थ-सुण्णभस यण्ण संपउत्ता) अत्यन्त उग्र त्रास से त्रस्त, कर्तव्यशून्य, भय आहारादि संज्ञाओं से युक्त वे जीव (निच्च) सदा के लिए (संसारसागरं ) संसाररूपी समुद्र में ही, (वसंत) निवास करते हैं - संसारसागर में ही परिभ्रमण करते रहते हैं, ( नरयतिरियनरअमरगमणपे रंतचक्कवालं) नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगतियों में गमन करना ही संसार सागर की बाह्य परिधि है, (जम्मजरामरणकरण गंभीरदुक्ख पक्खुभियपउरसलिलं ) जन्म, जरा, मृत्यु के कारण होने वाला गंभीर दुःख ही जिस संसार सागर का क्षुब्ध प्रचुर जल है, (संजोगविजोगवीचीचितापसंगपसरियवह-बंधमहल्लविपुलकल्लोलकलुणविलवितलोभकलकलत बोलबहुलं ) जिस संसारसमुद्र में संयोग और वियोगरूपी लहरें हैं, निरन्तर चिन्ता ही उनका फैलाव है, वध और बंधन ही जिसमें लंबी-लंबी विस्तीर्ण कल्लोल-तरंगें हैं तथा करुणापूर्ण विलाप और लोभ की कलकल ध्वनि का प्राचुर्य है । ( अवमाणणफेणं) जहाँ अपमानरूपी फेन – झाग हैं, (तिब्बखि(f सण पुलंपुलप्पभूयरोग वेयणपराभवविणिपात करुसघ रिसणसमावडिय कठिणकम्मपत्थरत रंगरंगंतनिच्चमच्चुभयतोयपट्ठ) तीव्र निन्दा, बारबार उत्पन्न होने वाले रोग, वेदना, तिरस्कार, अपमान, नीचे गिरा देना, कठोर झिड़कियाँ - डांटडपट जिनसे प्राप्त होते हैं, ऐसे