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________________ -२६ - पंक्ति में हवा करते थे। हंसराज उन श्रोताओं में से थे, जिनका मन वक्ता के वचनों के साथ तादात्म्य स्थापित कर लिया करता है। पूर्वजन्मोपार्जित पुण्य जागा, राग भागा, वैराग्य तरंगित हुआ और १८ दिन तक प्रवचन-पीयूष का. पान कर अठारहवां वर्ष आरम्भ होते ही आप लुधियाना आगए और यहाँ आकर सन्तशिरोमणि श्रद्धय, श्री जयराम दास जी महाराज के दर्शन करते हो उनका वैराग्य-रंग और भी पक्का हो गया, विरक्त मन साधु-दीक्षा के लिये आकुल हो उठा। परन्तु दीक्षा के लिये माता-पिता की आज्ञा अनिवार्य थी, पर झोली में पड़े रत्न को कोन छोड़ना चाहता है। माता-पिता की असहमति और दादा की सहमति का संघर्ष कुछ दिन चला, अन्त में दादा जी की सहमति का आधार लेकर आप लुधियाना लौट आए और श्रद्धेय श्री जयराम दास जी महाराज से अध्यात्म-पथ पर चलने के लिए आश्रय देने की प्रार्थना की। . श्री जयराम दास जी महाराज दूरदर्शी एवं भविष्य के प्रति सजग रहने वाले साधना-सम्पन्न सन्त थे। उन्होंने लुधियानानिवासी स्वर्गीय मंगूमल'. जी, स्वर्गीय लाहौरीराम जी और श्रावक श्रेष्ठ लाला नौराताराम जी की उपस्थिति में लुधियाना और फिलौर के बीच विहार-मार्ग पर एक वृक्ष के नीचे इनकी अध्यात्मसाधना की कामना को पूर्ण कर इन्हें कृतकृत्य किया और साधुवेष में इन्हें साथ . लेकर राहों की ओर विहार कर दिया। राहों पहुंच कर इन्हें आत्मोत्थान के लिए श्री आत्माराम जी महाराज के अध्यात्म-बालोक के पावन नेश्राय में रखकर वे चल दिये अपने अभीष्ट पथ पर। साधु-जीवन में प्रवेश करते ही 'हंसराज' हेमचन्द्र' बने और साधना की अग्नि में तप. कर निखरते हुए चन्द्र से चमकने लगे। - स्वाध्याय-साधना आरम्भ हुई, संस्कृत का पाण्डित्य चमकने लगा, प्राकृत पर पूर्ण अधिकार हुआ और आचार्य श्री की महती अनुकम्पा से शास्त्र-सिन्धु के गम्भीर तल तक पहुंच कर ज्ञान-रत्नों की उपलब्धि होने लगी। आचार्य श्री के. चरणानुगामी बन कर चलते हुए 'छायेवान्वगच्छत्' की उक्ति चरितार्थ करने लगे। दिल्ली में उपाध्याय श्री अमर मुनि जी महाराज जैसे प्रतिभाधनी सहपाठी के साथ पंडित श्री बेचरदासजी जैसे जैनागमों के प्रकाण्ड पण्डित से किए गए स्वाध्याय ने जैन समाज को दो महान् विद्वान् सन्त प्रदान किये। आप श्री जी की विद्वत्ता को परखते हुए ही सम्वत् १९६३ होशियारपुर में चतुर्विध संघ के सम्मुख आचार्य श्री काशीराम जी महाराज ने आपको 'संस्कृत प्राकृत विशारद' पद से विभूषित किया । आचार्यश्री के लुधियाना में निवास के अनन्तर आप भी उनकी सेवा में ही रहने लगे, स्वाध्याय करने के साथ-साथ स्वाध्याय-साधना करवाते हुए। श्रद्धय
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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