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________________ २२२ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र श्वर भगवान् ने (अलियवयणस्स) असत्यभाषण का (फलविवागं) फलविपाक–परिणामों का भोग, (कहेसी) कहा था, (एवमाहंसु) ऐसा गौतमादि गणधरों ने कहा है। (एयं) इस प्रकार (तं) वह (अलियवयणं) असत्यवचन, (लहुसगलहुचवलभणियं) तुच्छ आत्माओं से भी तुच्छ एवं चपल मनुष्यों द्वारा बोली जाने वाला, (भयंकर) भयंकर है, (दुहकरं) दुःखप्रद है, (अयसकर) अपयश दिलाने वाला है, (वेरकर) वैर विरोध उत्पन्न करने वाला है, (अरतिरतिरागदोसमणसंकिलेसवियरणं) अरति, रति, राग, द्वष एवं मन में संक्लेश पैदा करने वाला है, (अलियनियडिसातिजोंगबहुलं) असत्य, माया और धूर्तता की प्रवृत्तियों से परिपूर्ण है, (नीयजणनिसेवियं) जाति, कुल और कामों से हीन कमीने लोगों द्वारा ही सेवित है, (निसंस) घातक है अथवा प्रशंसारहित है, अथवा निःशेष - समस्त (अपच्चयकारक) अविश्वासों का कारण है, (परमसाहुगरहणिज्ज) उत्कृष्ट साधुओं द्वारा निन्द्य है, (परपीलाकारक) दूसरे प्राणियों को पीड़ा देने वाला है, (परमकिण्हलेस्ससहियं) परम कृष्णलेश्या से युक्त है, (दुग्गतिविनिवायवड्ढणं) दुर्गति के पतन में वृद्धि करने वाला है, (पुणब्भवकरं) पुनः पुनः जन्म कराने वाला, (चिरपरिचियं) अनादिकाल से परिचित अभ्यस्त है, (अणुगयं) परम्परागत है अथवा (अणागयं) भविष्य में भी साथ जाने वाला है, (दुरंत) परिणाम में दुःखदायी है । (बितीयं) यह द्वितीय (अधम्मवारं) अधर्मद्वार, (समतं) समाप्त हुआ। मूलार्थ- उस पूर्वोक्त असत्यभाषण से बंधे हुए कर्मफल को नहीं जानने वाले मनुष्य महाभयंकर,निरन्तरवेदना से परिपूर्ण, लम्बे समय तक प्रचुर दुःखों से व्याप्त नरक और तिर्यञ्चयोनि का बन्ध करते हैं और उसकी अवधि को बढ़ाते हैं । तथा निरन्तर असत्य भाषण में रचेपचे और चिपटे हुए दुर्गति में निवास पा कर जीव बार-बार जन्म-मरणरूप घोर अन्धकार में भटकते रहते हैं। वे जीव नरक और तिर्यञ्चयोनि से शेष बचे हुए कर्मफलों को भोगने के लिए इस मनुष्यलोक में आते हैं ; लेकिन यहाँ भी दुःखमय स्थिति में होते हैं, अन्त में दुःख पाते हैं, परतंत्रता की बेड़ी में जकड़े रहते हैं, धन और इन्द्रियों के भोगों से वंचित रहते है, सुखों से रहित होते हैं, अथवा मित्रों से विहीन होते हैं, वे बीवाई, खाज, खुजली आदि चर्मरोग वाले होते हैं, उनका चेहरा बड़ा ही विकराल और शरीर का रंग भद्दा होता है, वे कठोर और खुर्दरे शरीर को पाते हैं, उन्हें कहीं भी आराम नहीं मिलता, उनके शरीर की कान्ति फीकी होती है, शरीर खोखला व बलहीन होता है, वे निस्तेज होते हैं, उनकी वाणी
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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