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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र प्रयत्न के ही हो जाता है। जिसकी भवितव्यता नहीं है, वह वस्तु हाथ में आई हुई भी चली जाती है। . इसी प्रकार कई दार्शनिक कर्म को ही जगत् के सब अच्छे बुरे कार्यों -या भली-बुरी स्थिति का कारण मानते हैं। उनका कहना है कि कर्म अच्छे होते हैं तो सब चीजें अनायास ही मिल जाती हैं, न स्वभाव बाधक बनता है, न काल और न नियति ही ; तथा न पुरुषार्थ की ही अपेक्षा रहती है। कर्म ही सब कुछ करने-धरने वाला है। कहा भी है
सानो .. 'ब्रह्मा येन कुलालवनियमितो ब्रह्माण्डमाण्डोदरे।
विष्णुर्येन दशावतारग्रहणे क्षिप्तो महासंकटे ॥ रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितो।
सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने, तस्मै नमः कर्मणे ।' अर्थात्-'जिसने ब्रह्माजी को ब्रह्माण्डरूपी बरतन, बनाने में ही कुम्भार की तरह नियुक्त कर दिया ; जिसने विष्णु को दश अवतारों के धारण करने के महासंकट में डाल दिया, जिसने महादेव को हाथ में खप्पर ले कर भिक्षाटन करवा दिया, और जिसके प्रभाव से सूर्य प्रतिदिन आकाश-मंडल में घूमता है ; उस कर्म को नमस्कार है।'
कई दार्शनिक कर्म के साथ ही देव को भी संसार के सभी कार्यों का कारण मानते हैं । वे कहते हैं—पूर्वकृत कर्म ही दैव या भाग्य है । उसी के आधार पर मनुष्य का वर्तमान और भविष्य बनता है । पूर्वकृत कर्म के वश ही मनुष्य का अच्छा या बुरा प्रारब्ध अथवा भाग्य बनता है । इसलिए इसमें भी कर्म के सम्बन्ध में दिये गए सभी तर्क समझ लेने चाहिए।
इसके पश्चात् कई लोग यदृच्छा को भी सृष्टि के कार्यों में प्रबल कारण मानते हैं। उनका कहना है'ईश्वरेच्छा बलीयसी' ईश्वर की इच्छा ही सबसे बलवती होती है। हमारा सोचा हुआ कुछ काम नहीं आता। अथवा यदृच्छा का मतलब अपने आप ही होता है। कहा भी है
'अकितोपस्थितमेव सर्व', चित्रं जनानां सुखदुःखजातम् ।
काकस्य तालेन यथाभिघातो, न बुद्धिपूर्वोऽत्र वृथाभिमानः ॥'
अर्थात्-प्राणियों को विचित्र सुख या दुःख अप्रत्याशितरूप से बिना सोचे विचारे ही सहसा उपस्थित हो जाते हैं। उड़ते हुए कौए का ताड़ पर बैठना और ताड़ के पेड़ का गिरना, दोनों बातें अकस्मात् ही हो गई। अतः सभी बातें अपने आप ही (यदृच्छा से) होती हैं, इस में बुद्धि लगा कर पहले से सोचने का अभिमान करना व्यर्थ है।
"सत्यं पिशाचाः स्म वने वसामो, भेरी करानैरपि न स्पृशामः । यदृच्छया सिद्ध्यति लोकयात्रा, भेरी पिशाचाः परिताड़यन्ति ॥"