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द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव
२०५ द्वारा बाधित होता । जैसे मरीचिका (सूर्य किरणों से चमकती रेतीली भूमि) में उत्पन्न हुआ जल का ज्ञान पास जाते ही बाधित हो जाता है कि 'अरे! यह तो केवल मरीचिका है। मैंने अज्ञानता (भ्रान्ति) से इसे जल समझ लिया था। इस प्रकार उत्तरकाल में पूर्वकालिक ज्ञान बाधित होने पर उसे (पूर्वज्ञान को) मिथ्याज्ञान माना जाता है। लेकिन घट, पट, मकान आदि पदार्थों का पूर्वकालिक ज्ञान उत्तरकालिक (समीप जाने पर होने वाले) ज्ञान से बाधित नहीं होता, बल्कि उसमें प्रवृत्ति होने पर उस ज्ञान की सत्यता ही सिद्ध होती है कि मुझे पहले जो घट का ज्ञान हुआ था, वह बिलकुल सत्य है, क्योंकि कुए, नदी आदि पर ले जाकर इसमें जल भर कर ले आया हूं।
___अतः प्रमाण और युक्ति से खण्डित होने से ब्रह्म कत्ववाद भी असत्य सिद्ध हो जाता है।
आत्मा का अकर्तृत्ववाद-शास्त्रकार अब सांख्यदर्शन की मान्यता का उल्लेख करते हैं—'अकारको वेदको य सुकयस्स दुक्कयस्स' यानी आत्मा' पुण्य और पाप कर्मों का कर्ता नहीं है; केवल उनका फल भोगने वाला है। प्रश्न होता है कि फिर पुण्यकर्मों और पापकर्मों का कर्ता कौन है ? इसके उत्तर में हम पहले सांख्यदर्शन की मान्यता का संक्षेप में दिग्दर्शन कराते हैं—सांख्यदर्शन में मुख्य दो तत्व माने गए हैं—पुरुष (आत्मा) और प्रकृति । प्रकृति-पुरुष का स्वरूप इस प्रकार है
'त्रिगुणमविवेकी विषयः सामान्यमचेतनं प्रसवमि । ... . व्यक्त तथा प्रधानं तद्विपरीतस्तथा च पुमान् ॥'
अर्थात्-प्रकृति यानी प्रधान सत्व, रज और तम तीन गुणों से युक्त है, विवेकरहित, विषय, सामान्य, अचेतन और व्यक्त है । तथा इसके विपरीत स्वरूप वाला पुरुष-आत्मा है, जो त्रिगुण आदि से रहित है।
पुरुष (आत्मा) नित्य, अमूर्त, कर्मों का अकर्ता, कर्मों के फल का भोक्ता, असंग और निर्लेप चैतन्यस्वरूप है । पुरुष अपने स्वरूप का अनुभव करता है और उदासीन और द्रष्टा बना रहता है । प्रकृति ही संसार के सब कार्य करती है। वह जड़ और नित्य है तथा अनेक कार्य करने वाली है। संसार के रंगस्थल पर नाचने वाली नर्तकी प्रकृति है । वह कभी मनुष्य का, कभी पशु का, कभी पक्षी का और कभी देव का स्वांग (वेष) धारण करके नर्तनरूप अनेक क्रियाएँ करती रहती हैं। पुरुष (आत्मा) दर्शकों के समान उन सबका द्रष्टा है। ज्ञान, सुख, दुःख, हर्ष, शोक
१-कहा भी है--'अकर्ता, निगुणो, भोक्ता आत्मा कापिलदर्शने ।' २–'यस्मान्न बध्यते, न मुच्यते नाऽपि संसरति कश्चित् ।
संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः॥'
-संपादक