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________________ द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्र व २०५ पिता में, गुरु में और शिष्य में भी विष्णु के विद्यमान रहने से कुछ भी अन्तर नहीं रहेगा । फिर यह प्रश्न होता है कि वह विष्णु अचेतनरूप है या सचेतनरूप ? यदि वह चेतनरूप है, तब तो पाषाणादि अचेतन पदार्थों में उसकी सत्ता न रह सकेगी और वह यदि अचेतनरूप है तो चेतन मनुष्य, पशुपक्षी आदि में नहीं रह सकेगा । इस प्रकार विष्णु को सर्वव्यापी मानने में अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं । इसलिए विष्णु को सर्वत्र व्यापक मान कर सारे जगत् को विष्णुमय मानना प्रमाणविरुद्ध और युक्तिविरुद्ध होने से असत्य है । 'एवमेके वदंति मोसं एगो आया' - अब शास्त्रकार आत्माद्वैतवादी वेदान्तदर्शन की मीमांसा करते हुए कहते हैं कि यह मिथ्या कथन है कि 'एक ही आत्मा है । जब वेदान्तियों के सामने यह तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि ये जो विविध प्राणियों में अलग-अलग आत्माएँ दिखाई देती हैं, इन्हें कैसे झुठलाएंगे ? ' तब वे युक्ति से इस बात को सिद्ध करते हैं एक एव हि भूतात्मा एकधा बहुधा चैव भूते भूते व्यवस्थितः दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ अर्थात् – 'संसार में आत्मा तो एक ही है, वही प्रत्येक प्राणी में स्थित है । वह एक होने पर भी अनेक-सा प्रतीत होता है; जैसे चन्द्रमा एक होने पर भी अनेक जलपात्रों या जलाशयों में प्रतिबिम्बित होकर अनेकरूप में प्रतिभासित होता है ।' आत्माद्वैतवाद की असत्यता - यह आत्माद्वैतवाद प्रमाण से बाधित है । क्योंकि प्रत्यक्षप्रमाण से प्रत्येक आत्मा की सत्ता अलग-अलग प्रतीत होती है । अगर विश्व के सभी प्राणियों की आत्मा एक ही मानी जाएगी तो एक व्यक्ति के किये हुए - अशुभकर्म का फल दूसरे शुभकर्म वाले को मिल जाएगा और उसके द्वारा कृत शुभकर्मों का फल अशुभकर्म वाले को मिल जाएगा । परन्तु संसार में ऐसा देखा नहीं जाता कि एक मेहनत करे और दूसरा उसका फल भोगे । जो आत्मा अन्याय या अपराध करता है, वही दण्ड भोगता है, जो विद्याध्ययन में श्रम करता है, वही विद्वान् बनता है; जो जहर खातां है, वहीं मरता है; ये सब बातें आत्मा के भिन्न-भिन्न अस्तित्व को सिद्ध करती हैं । अगर सब में एक ही आत्मा मानी जाय तो एक जहर खाने से मरने पर सबको मर जाना चाहिए, परन्तु ऐसा होना असम्भव है । सर्वत्र एक आत्मा को सिद्ध करने के लिए जल में चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब का जो दृष्टान्त दिया गया है, वह भी यथार्थरूप से घटित नहीं होता। चूं कि आकाश में स्थित चन्द्रमा और जलाशय या जलपात्र में स्थित प्रतिबिम्ब भिन्न-भिन्न हैं । आकाशवर्ती चन्द्र प्रकाश, शान्ति और आह्लाद का जो कार्य करता है, उसे जलाशय या जलपात्र में स्थित चन्द्र- प्रतिबिम्ब नहीं कर सकता । कार्यभेद से वस्तु में भेद माना जाता
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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