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________________ १९४ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र नहीं करता । मरते समय भी उसके चेहरे पर अप्रसन्नता होगी, वह हायतोबा मचाते हुए इस दुनिया से कूच करेगा और आगे भी अपने दुष्कर्मों के अनुसार कुगति और योनि में जन्म पा कर नाना प्रकार के दुःख भोगेगा । इसलिए प्रत्याख्यान, त्याग तप आदि तथा उनके फलस्वरूप देवलोक, मनुष्यलोक या सिद्धगति आदि के विषय में नास्तिकों की असत्यवादिता स्पष्टतः सिद्ध हो जाती है । सुक्रिया और दुष्क्रिया प्रत्यक्ष दिखाई देती है, "आत्मनः प्रतिकूलानि परेषांन समाचरेत्' (जो अपने प्रतिकूल हो उसे दूसरों के प्रति भी न करो ) इस न्याय के अनुसार व्यक्ति स्वयमेव इन दोनों का निर्णय कर सकता है । नास्तिकवादियों का माता-पिता, ऋषिमुनि तथा अरिहन्त आदि का निषेध करना भी मिथ्या है। माता-पिता के साथ संतान का जन्यजनकभाव सम्बन्ध तो आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होने पर स्वतः सिद्ध हो जाता है । इस सम्बन्ध के अलावा वे व्यवहार दृष्टि से पूजनीय भी सिद्ध होते हैं । जैसे कीचड़ से क और मेंढक की उत्पत्ति समान होने पर भी कमल आदरणीय समझा जाता है, वैसे ही माता-पिता संतान के अत्यन्त उपकारी होने से लोकपक्ष में पूजनीय माने जाते हैं । अगर नास्तिकवादी माता-पिता को न मानते तो उनकी दशा जंगली पशुओं से भी बीती होती । इतने सुसंस्कार, विद्या और कलाएँ या विकास के साधन, जो नास्तिकों . को मिले हैं, वे कहाँ से मिलते ? इसी प्रकार जगत् के लिए उपकारी होने से ऋषिमुनि और अरिहंत भी पूजनीय माने जाते हैं । जगत् पारस्परिक विनिमय के आधार पर चलता है, किन्तु साधुता - त्यागशीलता के आधार पर वह विकसित होता है । इसलिए जगत् में साधु-संतों या तीर्थंकरों के मार्गदर्शन की और उनसे धर्म-अधर्म के फल की प्रेरणा की आवश्यकता रहने से उनका अस्तित्व तो स्वत: ही सिद्ध है । चक्रवर्ती आदि राज्यशासन के नेताओं की भी संसार में आवश्यकता रहेगी ही । अगर राजा, चक्रवर्ती आदि का अस्तित्व नहीं माना जाएगा तो राष्ट्रव्यवस्था में गड़बड़ पैदा होगी, अराजकता फैल जायगी । जो मनुष्य नीति-धर्म के नियमों का उल्लंघन करके राष्ट्रीय कानूनों को तोड़ते हैं, दुर्बलों पर अत्याचार करते हैं, लूटपाट, चोरी, हत्या आदि कुकर्म करते हैं, उनको दण्ड देने वाला कोई नहीं रहेगा, तो सर्वत्र आपाधापी मच जायगी । इस अव्यवस्था को दूर करने के लिए राज्यशासनकर्ता की अत्यन्त आवश्यकता है। यह एक तथ्य है । यह बात दूसरी है कि लोकतंत्रीय व्यवस्था में चक्रवर्ती राजा आदि की जरूरत न रहती हो, परन्तु शासक की तो जरूरत हर देश और हर काल में रहेगी ही, भले ही वे मंत्री, प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के रूप में हों । इसलिए तमोगुणी तत्त्वों के दमन के लिए व व्यवस्था के लिए राज्यशासन के नेता के अस्तित्व से इन्कार नहीं किया जा सकता । आगमप्रमाण से तो अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव,
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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