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________________ १२८ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र मुनि, चक्रवर्ती या राजा-महाराजा तक को भी नहीं छोड़ते, मामूली आदमी की तो बात ही क्या है ? जैन इतिहास में आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के जीवन का एक ज्वलन्त उदाहरण इस विषय में प्रस्तुत किया जा सकता है। लाभान्तराय कर्म के उदय के कारण उन्हें एक वर्ष मुनि के योग्य कल्पनीय आहार नहीं मिला, इस कारण उन्हें एक वर्ष तक अपना अभिग्रह तप करना पड़ा। इसी प्रकार राजा श्रेणिक ने रौद्र - ध्यानवश निकाचित रूप से नरकगति का बंध कर लिया था । उसके पश्चात् उन्होंने क्षायिक सम्यक्त्व भी प्राप्त किया, भविष्य में तीर्थंकर नामकर्म भी उपार्जित किया, लेकिन उन्हें नरकगति में अवश्य जाना पड़ा। मतलब यह है कि रौद्र परिणामवश, ऐसे गाढ रूप से बांधे हुए कर्मों का फल अवश्यमेव भोगना पड़ता है । इसी बात को शास्त्रकार ने स्पष्ट किया है— ' न य अवेदयित्ता अस्थि हु मोक्खो ति ।' प्राणवध के दुष्परिणामों की भयंकरता - पूर्वोक्त मूलपाठ के द्वारा हिंसा के कटुफलों का स्पष्टीकरण करने के बाद शास्त्रकार निष्कर्ष रूप में प्राणवध (हिंसा) की भयंकरता संक्षेप में बताते हैं- “एसो सो पाणवहस्स फलविवागो वाससहसह मुच्चती । एसो सो पाणवहो चंडो रुद्दो मरणवेमणसो ।' इसका अर्थ अत्यन्त स्पष्ट है, जिसे मूलार्थ में हम दे आए हैं । हिंसा के भयंकर फलों का निष्कर्ष बताने के साथ-साथ हिंसा की भयंकरता और कठोरता का वर्णन जो प्रारम्भ में किया था, उस का ही दुबारा पुनरुक्ति करके भी चौथे सूत्र के प्रथम अधर्म द्वार के उपसंहार के रूप में निरूपण किया है। दुबारा उसी बात को दोहराने के पीछे यही आशय प्रतीत होता है, कि हिंसा की निकृष्टता या अकर्त्तव्यता की बात जनता के मन में जम जाय । हिंसा आदि की अनाचरणीयता या निकृष्टता की बात किसी व्यक्ति के दिल-दिमाग में जब अच्छी तरह ठस जाती है तो वह पुनः उस निकृष्ट बात की ओर नहीं झुकता; उसमें प्रवृत्त नहीं होता । यही कारण है कि शास्त्रकार ने हिंसा के स्वरूप वाले पाठ को, जो प्रारम्भ में दिया गया था, उपसंहार में पुनः दोहराया है । एवमाहंसु नायकुलनंदणी — हिंसा के इस भयंकर फलविपाक का निरूपण कोई कपोलकल्पित नहीं है, और न किसी राह चलते मनचले द्वारा ही बताया गया है, न शास्त्रकार की अपनी मनगढ़ंत बातें हैं । सर्वज्ञ वीतराग तीर्थंकर ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर स्वामी ने ही ऐसा कहा है । जो लोग यह कहते हैं कि यह शास्त्र किसी पुरुष का रचा हुआ नहीं है, या किसी मनुष्य का कहा हुआ नहीं है, यह तो सीधा ईश्वर के द्वारा कथित और रचित है, इस अपौरुषेयवाद का भी 'एवमाहंसु नायकुलनंदणो' कहकर खण्डन कर दिया है । साथ ही इस बात का भी समाधान कर दिया है कि ये चंडूखाने की गप्पें नहीं हैं, वास्तविक तथ्यपूर्ण बातें हैं और एक प्रामाणिक, सर्वप्राणिहितैषी, आप्तपुरुष, सर्वज्ञ द्वारा निरूपित हैं । ऐसा कहकर शास्त्रकार ने विनय भक्तिवश अपनी
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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