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प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव
परिभ्रमण करते रहते हैं। इसी प्रकार तीन इन्द्रियों वाले कुथुआ, चींटी, अंधिया आदि जीवों की योनियों में पूरे आठ लाख जन्म लेने के कुलकोटिस्थान हैं, उनमें जन्म-मरण का अनुभव करते हुए नारकों के समान तीव्र दःख वाले स्पर्शन, रसन और घ्राण से यक्त तीन इन्द्रियों वाले जीव संख्यात काल तक भ्रमण करते रहते हैं। तथा दो इन्द्रियों वाले जीवों के गिंडौले (गेंडए), अलसिए, जोंक, घोंघे आदि योनियों में जन्म लेने के पूरे सात लाख कुलकोटि (उत्पत्तिस्थान) हैं। उन में जन्ममृत्यु का अनुभव करते हुए नारकों के समान तीव्र दुःखों से परिपूर्ण स्पर्शन और रसन-इन दो इन्द्रियों से युक्त जीव संख्यात काल तक परिभ्रमण करते रहते हैं । इसी प्रकार एकेन्द्रिय पर्याय को प्राप्त पृथ्वी, जल, अग्नि,वायु और वनस्पति-ये ५ प्रकार के जीव हैं। इनमें से प्रत्येक के सूक्ष्म और बादर दो भेद हैं । फिर इन दसों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक नाम के दो भेद और होते हैं। तथा वनस्पति के प्रत्येक शरीर नाम कर्म के उदय से उत्पन्न प्रत्येक शरीरी एवं साधारण शरीरनाम कर्म के उदय से उत्पन्न साधारण शरीरी, इस तरह दो भेद और भी हैं। और इनमें से जो प्रत्येक अर्थात भिन्न-भिन्न शरीर में जीने वाले पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और प्रत्येक वन-स्पति के जीव हैं, उनमें वे असंख्यात काल तक परिभ्रमण करते रहते हैं तथा साधारण वनस्पति में अनन्तकाल तक भ्रमण करते हैं। केवल स्पर्शनेन्द्रिय को पाए हुए वे एकेन्द्रियजीव बार-बार उन्हीं-उन्हीं एकेन्द्रियपर्यायों में वृक्ष गण या वन आदि में दूसरे भवों में जन्म लेकर आगे कहे जाने वाले इस अनिष्ट दुःखसमूह को पाते रहते हैं--
कुल्हाड़े और हल से भूमि को विदारण करना, जल का मथना और रोकना,अग्नि और वायु का अनेक प्रकार के स्व-परकाय आदिशस्त्रों से टकराना, परस्पर चोट लगा कर मारना तथा विराधना और संताप देना, अनचाही और निरर्थक दूसरों की शरीरादि प्रवृत्ति के लिए अथवा आवश्यक प्रयोजनों से नौकर चाकरों या गाय बैल आदि पशुओं के निमित्त एवं औषध व आहार आदि के लिए जड़ से खोदना, वृक्षादि की छाल अलग करना, आग में पकाना, कूटना, पीसना, पीटना, भूनना, छानना, मोड़ना, सड़ना, टुकड़े-टुकड़े हो जाना, मसल या कुचल देना, छेदना, छीलना, रोओं का उखाड़ा जाना, पत्तों-फूलों आदि का झाड़ा जाना-तौड़ा जाना, आग जलाना आदि ।
इस प्रकार जन्मपरम्पराओं में लगातार दुःखों से सम्बद्ध होकर प्राणिवध करने में संलग्न वे हिंसक जीव इस भीषण संसार में अनन्तकाल तक चक्कर खाते रहते हैं। नरक से निकले हए जीव बड़ी कठिनाई से किसी भी तरह मनष्य पर्याय को पा भी लेते हैं, तो भी वे प्रायः भाग्यहीन, विकृत