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२६६ | अमरदीप
कोसोकिते व्वाऽसो तिक्खो भासच्छण्णो व पविओ। लिंग-वेस-पलिच्छण्णो अजियप्पा तहा पुमं ॥४५॥
अर्थात्-जैसे तीक्ष्ण तलवार म्यान में रहती है, और अग्नि भस्माच्छादित रहती है, इसी प्रकार अजितात्मा (इन्द्रियों को वश में न रखने वाले) पुरुष नानाविध लिंग और वेष में छिपे रहते हैं ॥४५।।
जिनका लिंग और वेश तो संयमी साधक का है, परन्तु जिनके मन में वासना की ज्वाला शान्त नहीं हुई है ऐसे व्यक्ति स्व-पर वंचना करते हैं। ऐसे व्यक्ति आत्मनिष्ठ सुख से दूर रहते हैं। आत्मनिष्ठ सुख के इच्छुक साधक लिंग और वेष से अपना स्वार्थ सिद्ध न करके आत्मा के प्रति वफादार रहे। विभिन्न तृष्णाओं से दूर रहो
इससे आगे तीन गाथाओं द्वारा आत्मनिष्ठ साधक को विभिन्न तृष्णाओं से दूर रहने का अर्हतर्षि सन्देश दे रहे हैं
कामा मुसामुही तिक्खा, साताकम्मानुसारिणी । तण्हा सातं च सिग्घं च, तण्हा छिदति देहिणं ॥४६॥ . सदेवोरग गंधव्वं सतिरिक्खं समाणुस ।। वत्तं तेहिं जगं किच्छं तहः-पास-णिबंधणं ॥४७॥ अक्खोवंगो वणे लेवो, तावणं जं जउस्स य। ..
णामणं उसुणो ज च, जुत्त तो कज्ज-कारणं ॥४८॥ अर्थात्-काम तीक्ष्ण मृषामुखी (असत्यवादी) कैंचियाँ है । वे सात कर्मानुसारी हैं । किन्तु यह तृष्णा शरीरधारियों की शान्ति और तृषा को शीघ्र काट देती है ।।४६।।
जिसने तष्णा का बन्धन तोड़ दिया है, उसने देव, नाग, गन्धर्व और तिर्यञ्च तथा मनुष्य सहित सम्पूर्ण लोक का त्याग कर दिया ॥४७॥
आँख में अंजन लगाना, व्रण (मुहासे) पर (कीम, स्नो आदि का) लेप लगाना, लाख का तपाना और बाण का झुकाना इन सबके पीछे योग्य कार्य-कारण-परम्परा काम कर रही है ॥४८॥
कामनाएँ एवं वासनाएँ जहाँ रहती हैं, वहाँ असत्य अवश्य रहता है। कामी व्यक्ति अपने पाप को छिपाने के लिए सौ-सौ झूठ का आश्रय लेता है। तृष्णा सुख चाहती है, किन्तु वह देहधारियों की शान्ति को अविलम्ब भंग कर देती है। दुनिया के आधे से अधिक संघर्ष तृष्णा के नियन्त्रण के