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अमरदीप
लिंगं च जीवणट्ठाए, अविसुद्धति जीवति । विज्जा - मंतोवदेसे हिं, दूति-संपेसणेहि वा ॥११॥ भावी तवोवदेसेहिं अविसुद्धति जीवति । मूल कोवुय-कम्मेहि, भासा - पणाइएहि या॥१२।। अक्खाइओवदेसेहिं अविसुद्ध तु जीवति ।
अर्थात्-श्रोत्र-मात्र से ही विष ग्राह्य है, किन्तु यह जानकर भी अज्ञानी वहीं अपने आपको जोड़ता है । सम्यक् तप को छोड़कर वह आजीविका के लिए विविध तप करता है ॥९॥
तप का आश्रय करके जीने वाला साधक तपोजीवन जीता है। कुछ लोग ज्ञान से जीवन जीते हैं और कुछ साधक चरण-करणरूप चारित्र क्रिया . को उपजीवन बनाते हैं ॥१०॥
जिन्होंने वेष को जीवन (जीविका) का साधन बनाया है, वे भी अशुद्ध जीवन जीते हैं। विद्या और मंत्र के उपदेश एवं दूती की तरह गृहस्थों को सन्देश पहुँचाना, तथा भावी तप या भवितव्य भविष्यवाणी के उपदेश से जीना भी अशुद्ध जीवन है ॥११-१२॥
__मूल (जड़ी-बूटी) या कौतुहल पूर्ण कर्मों के द्वारा, भाषा-चातुर्य से, आख्यायिका (कथा) कहकर या अक्ष-पासे आदि के उपदेश से जीने वाला भी अशुद्ध जीवन जीता है ॥१२-१३।।
विविध साधनाओं को आजीविका का साधन बनाने वाले का साधनाजीवन कितना दूषित, परवश और लक्ष्यभ्रष्ट हो जाता है ? इस विषय में इन गाथाओं में काफी प्रकाश डाला गया है।
विष का नाम सुनकर उसका पान कर लेने वाला विष का जानकार है, ज्ञानी नहीं । ज्ञान और जानकारी में बहुत बड़ा अन्तर है । ज्ञान भीतरी होता है, जानकारी ऊपरी मात्र । 'ज्ञानस्य फलं विरति:'- ज्ञान का फल विरति है, ज्ञान होने के बाद आत्मा बुरी वृत्तियों-प्रवृत्तियों से हट जाता है, जबकि जानकारी के लिए ऐसा नियम नहीं है। जिसने केवल कानों से ही नहीं, हृदय से भी सुना है, वह स्वयं को साधना में जोड़ देता है। फिर उस साधक का तप एकमात्र आत्मशुद्धि के लिए होता है। उसका यह ज्ञान परिपक्व हो जाता है कि अग्नि सोने को शुद्ध करती है, ऐसे ही तप आत्मा को शुद्ध करता है। किन्तु तप की जानकारी वाला साधक तप को आजीविका का साधन बनाकर तप की तेजस्विता को समाप्त कर देता है।