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पापकर्म से विरक्ति २५३ 'जो व्यक्ति इस पापकर्म को स्वयं नहीं करता, न ही दूसरों से करवाता है । उस धृतिमान दीप्त-तेजस्वी को देवता भी नमस्कार करते हैं।'
साधक को पापकर्मों से सदैव दूर रहना चाहिए । कई बार पापी लोग अपनी परम्परा निभाने के लिए अपने पुत्र को बार-बार उसी पाप को करने के लिए प्रेरित करते हैं, जैसे रोहिणेय चोर को उसके पिता लोहखुर ने चोरी न छोड़ने और साधु के शब्द न सुनने की सलाह दी थी। इसी प्रकार कालसौकरिक कसाई ने तथा उसके परिवार ने भी उसके पुत्र को कसाईकर्म करने के लिए प्रेरित किया था , परन्तु जो व्यक्ति अपने संकल्प पर दृढ़ रहता है, उसे कोई भी बलात् पाप की ओर नहीं घसीट सकता। जो व्यक्ति स्वयं दृढ़ रहकर पाप-परिणति में लिप्त नहीं होता, और न ही अन्य व्यक्ति को उस ओर प्रेरित करता है । ऐसा निष्पाप साधक दिव्य तेज से आलोकित रहता है । अहिंसा और करुणा की सौम्य भावधारा उसके मुख पर अठखेलियां करती है। इसीलिए देवगण भी उसके चरणों में आ झुकते हैं।
___ यद्यपि भौतिक वैभव में देवगण मानव की अपेक्षा बहुत आगे हैं, परन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र में तो मानव से बहुत पीछे हैं । सर्वार्थसिद्ध के वैमानिक देव तैतीस सागर पर्यन्त प्रयत्न करें तब भी केवलज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते जबकि मानव का पुरुषार्थ सही दिशा में गति करे तो ४८ मिनट में ही केवलज्ञान पा सकता है। मोक्ष की सिद्धि मानव बहुत अल्प क्षणों में कर सकता है, जबकि देव या नारक या अन्य गति के प्राणी हजार प्रयत्न करने पर भी मोक्ष नहीं पा सकते। कहना चाहिए कि भौतिक वैभव की दृष्टि से महान् देवगण भी आध्यात्मिक वैभव में आगे बढ़े हुए मनुष्य के चरणों में झुकते हैं।
पाप अन्धकार की और पुण्य प्रकाश की ओर ले जाता है आगे अर्हतर्षि संजय पाप और पुण्य के परिणामों की चर्चा करते हुए कहते हैं
जे गरे कुव्वती पावं, अंधकारं महं करे ।
अणवज्ज पंडिते किच्चा, आदिच्चेव पभासती ॥२॥ 'जो मानव पापकर्म करता है, वह अन्धकार फैलाता है, जबकि पण्डित पुरुष अनवद्य कर्म करता हुआ सूर्य की भांति प्रकाशित होता है।'
__ वास्तव में पाप स्वयं अन्धकार में होता है। महात्मा गांधी ने कहा था-पापकर्म को अंधेरे की जरूरत होती है। पाप और पुण्य की परिभाषा करते हुए एक विचारक ने कहा है