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________________ आत्मनिष्ठ सुख की साधना के मूल मन्त्र २५१ के वेश में घूमने वाले मिथ्याचारी व्यक्ति जनता के समक्ष अपने आपको महान् पहुंचे हुए संत सिद्ध करना चाहते हैं । मैले वस्त्र, बाह्य क्रियाकाण्ड और दूसरों को शिथिलाचारी बताना, और स्वयं को दृढ़ाचारी एवं क्रियापात्र सिद्ध करना, ये हैं उनके बाह्य प्रदर्शन, जिसके चक्कर में पड़कर भोलीभाली स्थूलदर्शी जनता उन्हें महान् मान लेती है । उनका भीतरी रूप कुछ और होता है, बाहरी रूप कुछ और । किसी के विषय में सहसा निर्णय न करें परन्तु यह जरूर है कि मनुष्य का स्वभाव बड़ा विचित्र है । अभीअभी वह सुन्दर रूप में है, अगले क्षण उसका क्या रूप होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता । राजगृह का रोहिणेय चोर एक दिन भगवान् महावीर के चरणों सन्त हो गया था । एक समय की गणिका कोशा कामविजेता स्थूलभद्र के निमित्त से श्राविका बन गई थी । उसी कोशा के रूपपाश में बंधे विलासी कुमार स्थूलभद्र एक दिन कामविजेता महान् सन्त स्थूलभद्र बन गया था । वह कोशा की चित्रशाला में रहकर भी अलिप्त रहा । इसलिए जैनदर्शन कहता है कि किसी के वर्तमान रूप को देखकर उसके जीवन के विषय में कोई धारणा मत बनाओ, कोई भी निर्णय मत करो । उस पर घृणा न बरसाओ । सम्भव है, वह एक दिन महान् सन्त बन सकता । और उसके आलोचक उससे भी नीची भूमिका में जा सकते हैं । अर्जुनमाली के रूप में राक्षस बना हुआ मानव एक दिन भगवान् महावीर के चरणों में महान संत बन जाता है, और अद्भुत क्षमाघारी बनकर सात ही महीनों में अपने समस्त कर्मों को काटकर सिद्ध-बुद्ध - मुक्त हो जाता है । जिससे लोग घृणा करते थे, आज उसी के लिए देवगण दौड़े आ रहे हैं । अतः व्यक्ति किस क्षण बदल जायेगा, कहा नहीं जा सकता । कई व्यक्ति स्वभाव से बड़े दुर्बल होते हैं। वह कभी किसी बात को स्वीकार करते हैं, दूसरे क्षण इन्कार भी कर देते हैं । हर व्यक्ति की परिस्थिति, भावना, शक्ति, कार्यक्षमता, उत्साह, श्रद्धा आदि भिन्न-भिन्न होती है । इस विराट विश्व में अनन्त अनन्त आत्माएँ हैं, सबका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव पृथक् पृथक् है । साधक विवेकपूर्वक सबको समझने की कोशिश करे। एक-सा अपराध होने पर भी अपराधी की मनोवृत्ति, परिस्थिति, भावना आदि देखकर दण्ड दिया जाता है । आगम के साधकों के लिए दपिका और कल्पिका ये दो मुख्य दोष विधियाँ बताई गई हैं । उसके अनुसार दण्ड विधान है । अतः किसी भी व्यक्ति के लिए सहसा अच्छा या बुरा निर्णय न दो। उसकी भावना, परिस्थिति आदि को समझो । यही आत्मनिष्ठ सुख में सहायक होगा ।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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