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२३४ अमरदीप सूर्योदय होने पर उसका गमन प्रारम्भ हो, और सूर्यास्त होने पर जैसा भी क्षेत्र मिले, वहाँ रुक जाए । रात्रि बीत जाने पर तथा सूर्योदय हो जाने पर ही वह आगे ब, क्योंकि साधक प्रकाश का पथिक है । वह प्रकाश द्रव्य
और भाव दोनों प्रकार से अपेक्षित है। द्रव्य से सूर्य का प्रकाश और भाव से ज्ञान का प्रकाश ग्राह्य है। . साथ ही गमनागमन की विधि रह है कि साधक युगमात्र भूमि देखता हुआ चले, ताकि वह जीवादि की विराधना से बच सके। उसके मन में करुणा की धारा बहती रहे। वह सबकी रक्षा करने की कामना को लेकर 'चले । चलते हुए उसे सावधानी रखने की आवश्यकता है।
जाग्रत साधक ही गृहीत को रिक्त करता है। इसके दो रूप हैंएक ओर द्रव्य से वह लक्ष्य की दूरी को रिक्त करता हुआ काटता है, दूसरी ओर गहीत कर्मों को क्षय करता चला जाता है।
" बन्धुओ ! साधक को विश्व का स्वरूप समझकर अपनी साधना में गति-प्रगति करना ही कर्मक्षय का कारण है । इसी प्रकार वह, लोक के उस पार सिद्धिगति में पहुंच सकता है।