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________________ कषायों के घेरे में जाग्रत आत्मा २०७ वास्तव में क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चारों आत्मा की विभावे परिणतियाँ हैं। आत्मा स्वभाव से हटकर जब इन विभाव परिणतियों में जाता है, तब वह सावद्य (पाप) को ग्रहण करता है। वह सावद्य (पाप) आत्मा को पुनः विभाव की ओर ले जाता है। इस रूप में आत्मा की भवपरम्परा की लता सदैव पल्लवित-पुष्पित रहती है। दशवैकालिक सूत्र (अ. ८ गा. ४०) में कहा गया है कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोभो य पवड्ढमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति . मूलाई पुणब्भवस्स ।। 'यदि क्रोध और मान निगृहीत नहीं हैं, तथा माया और लोभ बढ़ रहे हैं, तो ये चारों कषाय भवपरम्परा की जड़ों को सींचते रहेंगे।' चूँकि जन्म-मरण की परम्परा के मूल कर्म हैं और कर्म राग-द्वष. प्रेरित होते हैं। राग और द्वष कषाय के अन्तर्गत हैं। स्थूलदृष्टि से क्रोध और मान द्वेष-प्रेरित हैं, जबकि माया और लोभ राग-प्रेरित हैं। निष्कर्ष यह है कि कषाय चाहे रागरूप हो या द्वषरूप, अन्ततः ये सभी भव परम्परा की वृद्धि करते हैं। कषायमुक्ति का राजमार्ग __ आत्मिक शान्ति का राजमार्ग कषायों को पराजित करना है। यही कारण है कि अद्दालक अर्हतर्षि स्वयं कषायमुक्ति के मार्ग को ग्रहण करते हुए कहते हैं "तेसि च णं अहं परिघातहेउ अकुप्पते अमज्जते अगूहते अलुभंते, तिगुत्ते, तिदंड-विरते, णिस्सल्ले, अगारवे, चउविकहविवज्जिए. पंचसमिते समिए पंचेन्दियसंवुडे, सरीर-सद्धारणट्ठा जोग-संधाणट्ठा, णवकोडि-परिसुद्ध, दस-दोस-विप्पमुक्क, उग्गमुप्पायण-सुद्ध तत्थ-तत्थ इतरा इतरा कुलेहि परकडं परणिट्टितं वितिगालं विगतधूमं सत्थातीतं सत्थ-परिणतं, पिडं सेज्जं उवहिं च एसे भावमित्ति अदालेणं अरहता इसिणा बुइतं ।" अर्थात्- 'अब मैं (अद्दालक ऋषि) उन कषायों के प्रतिघात के लिए क्रोध नहीं करता, मद नहीं करता, छल से दूर रहता हूँ और लोभ नहीं करता । तथा त्रिगुप्तियों से गुप्त, त्रिदण्ड से विरत, त्रिशल्य-रहित, त्रिगौरवरहित, चार विकथाओं से विवजित, पाँच समितियों से समित तथा पाँच
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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