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अज्ञ का विरोध : प्राज्ञ का बिनोद २०५ वही दमनशील साधक सुख से सोता है और उपसर्गरहित जीवन जीता है ॥५॥
जो कामभोगों में लुब्ध नहीं होता, जो छिन्नस्रोत और आस्रवरहित है, वह समस्त दुःखों से मुक्त एवं कर्मरज से रहित होकर सिद्ध (मुक्त) होता है ॥६॥
आत्मशान्ति कौन पा सकता है ? किसका जीवन कष्टों और पीडाओं से मुक्त रहता है, तथा दुःखपरम्परा को रोककर समस्त कर्ममुक्त सिद्ध कौन हो सकता है ? इसके उत्तर में प्रस्तुत दोनों गाथाएँ हैं । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच महाव्रत जिसकी आत्मशान्ति की सुरक्षा कर रहे हैं, जिसने इच्छाओं की रस्सी को तोड़ डाला है, जिसकी कषायों की ज्वाला शान्त हो चुकी है, वही आत्मदमनशील साधक सही अर्थों में सुख की नींद सोता है। वासनाजन्य कष्ट उसके जीवन में प्रवेश नहीं पा सकते । जिसे वासना और कामना लुभा नहीं सकती, वही उनके स्रोत को सुखा सकता है और कर्मास्रव को रोक सकता है। जो आस्रवों से रहित है, वही दुःखपरम्परा को सदा के लिए रोक सकता है और वही आत्मा कर्मरज से रहित होकर शाश्वत सिद्ध-स्थिति पा सकता है। बन्धुओ !
विरोधों और प्रहारों के बीच में साधक की समत्वसाधना तथा उसके ध्येयलक्षी जीवन के विषय में मैं विस्तार से कह चुका हूं। आप सब इस पर मनन करके जीवन बिताएँगे तो आत्मशान्ति को अवश्य ही प्राप्त कर सकेंगे।
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