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________________ पहचान : बाल और पण्डित की १८५ चेतना पूर्ण जागृत न हो तब तक दूषित वातावरण से बचना आवश्यक __ यद्यपि निश्चयदृष्टि से कोई भी आत्मा किसी दूसरे को न तो सुधार सकती है, और न बिगाड़ सकती है। यदि उसमें बिगड़ने का गुण है तो बाहरी निमित्त उसे बिगाड़ (विकृत कर) सकता है। लकड़ी में जलने का स्वभाव है, तभी तो आग उसे जला देती है, किन्तु पत्थर में वैसा स्वभाव नहीं है, इसीलिए पत्थर को दुनियाँ की कोई भी आग जला नहीं सकती। इसी प्रका जिसमें विकृत होने का स्वभाव है, उसे ही बाह्य संयोग बिगाड़ सकते हैं। जिसके पतन का समय है, उसे ही वैसा संयोग मिलता है परन्तु जिसके उत्थान का समय है, उसे वैसे ही उत्थान के सुन्दर निमित्त मिलते . अतः जिनकी चेतना जागृत है, जो विशिष्ट स्थिति तक पहुंच चुके हैं, उन्हें बाह्य निमित्त प्रभावित नहीं कर सकते । गोशालक का प्रबल निमित्त पाकर भी भगवान् महावीर की आत्मा विकृत न हो सकी; क्योंकि वे निम्नभूमिकाओं को पार कर चुके थे; और विकारों पर विजय पाने की उनमें अद्भुत क्षमता भी थी। इसीलिए गोशालक के तथा अनार्य देश आदि के अशुभ वातावरण भी उनकी शुभवृत्ति को अशुभ की ओर नहीं मोड़ सके। फिर भी जन साधारण या सामान्य साधक को चाहिए कि जब तक उच्च स्थिति पर न पहुंच जाएँ, तब तक अच्छे वातावरण और सुन्दर निमित्तों के बीच रहे, ताकि सुन्दर संस्कार, सद्बुद्धि और सदाचार का वातावरण मिलता रहे । प्रायः देखा जाता है कि जिसका शरीर स्वस्थ और सबल होता है, उस पर बाहर के कीटाणु आक्रमण नहीं कर सकते, क्योंकि उसके शरीर के कीटाणु रोग के कीटाणुओं से लड़ सकते हैं । किन्तु यदि शरीर दुर्बल है, और हार्ट कमजोर है तो रोग के कीटाणु बहुत ही शीघ्र उस पर असर कर सकते हैं। यही कारण है कि डाक्टर रोगी को स्वच्छ वातावरण में रहने की खास हिदायत देते हैं। अत: जब तक चेतना पूर्ण विकसित न हो, तब तक चाहे कोई भी निमित्त क्यों न हो, दूषित वातावरण से अपने आपको अवश्य बचाता रहे। साधु पुरुषों के साथ संसर्ग, संस्तव और धर्मचर्चा करो साधु पुरुषों का परिचय या संगति ही मनुष्य के जीवन का उत्तम निर्माण करती है। बबूल की छाया में काँटे मिलते हैं और नीम की छाया में जाने पर शुद्ध वायु मिलती है। इसीलिए अर्हतषि साधु पुरुषों के परिचय एवं सत्संग तथा उससे महाफल का निर्देश करते हुए कहते हैं
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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