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________________ १०२ अमरदीप कभी अपनी साधना से स्खलित नहीं हो सकता । अप्रमत्त साधक का उद्देश्य ही है - वृत्तियों पर विजय पाना । इस सम्बन्ध में मुझे एक उदाहरण याद आ रहा है एक गुरुभक्त शिष्य ने जिज्ञासावश गुरु से पूछा - गुरुदेव ! एक बात मेरे मन को कुरेदती रहती है कि आपके दर्शनार्थ अनेक रूपवती बालाएँ एवं वधुएँ आती हैं। क्या उन्हें देखकर आपका मानसिक ब्रह्मचर्य स्खलित नहीं होता ? शिष्य का प्रश्न बहुत गहरा और चुनौती भरा था। गुरु को तो उत्तर देना ही था, किन्तु तर्क से उत्तर देने से वह शिष्य के गले नहीं उतरता अतः अनुभवपूर्ण उत्तर देने का सोचा। गुरु ने आँखें लाल कीं और कृत्रिम आवेश - पूर्ण मुद्रा में शिष्य से कहा - इसका उत्तर तो मैं बाद में दूंगा। परन्तु यह समझ ले कि सात दिनों में तेरी मृत्यु अवश्यम्भावी है । शिष्य यह सुनकर घबराया । उसने गुरुजी से क्षमा माँगते हुए कहा - गुरुदेव ! मुझे बचाइए । मालूम होता है आप मेरे प्रश्न को आक्षेपात्मक समझ गए हैं, पर मैंने तो जिज्ञासावश ही ऐसा कठोर प्रश्न किया था । गुरु ने कहा- मृत्यु से बचाने की तो मेरे में क्या, किसी भी शक्ति में ताकत नहीं है । परन्तु मेरी बात माने तो तू इन सात दिनों को आर्त्तध्यान में मत गंवा । मेरे पास बैठ । आत्म-चिन्तन और प्रभु स्मरण कर । शिष्य अब गुरु के समीप ही बैठने लगा । दर्शनार्थी भक्त और भक्ताएँ आतीं, रूपवती युवतियां भी आती और भक्तिभावपूर्वक गुरु और शिष्य दोनों को वन्दन करके चली जातीं । सात दिन व्यतीत हो गए, किन्तु शिष्य को मृत्यु का साक्षात्कार नहीं हुआ तो आठवें दिन शिष्य ने पूछा- गुरुदेव आपने ! तो कहा था कि सात दिनों में तेरी मृत्यु अवश्यम्भावी है, परन्तु ऐसा तो नहीं हुआ । गुरु मुस्कराकर बोले- निःसन्देह मृत्यु तो रविवार से लेकर शनिवार तक इन सात दिनों में ही कभी होगी। किन्तु एक बात तो बता कि क्या इन विगत सात दिनों में तेरा मन उन दर्शनार्थी देवियों के रूप में मुग्ध हुआ ? क्या तेरा मानसिक ब्रह्मचर्य स्खलित हुआ ? शिष्य ने अपने बीते दिनों का स्मरण कर कहा- गुरुदेव ! इन सात दिनों में तो सतत एक भय था, जो मेरे जीवन को बाँधे हुए था, जिसने मेरे
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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