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हैं । कुछ दुखी हैं । फिर इस पर विचार करता है - सुखी है तो क्यों है ? दुखी है तो क्यों ? बुरा है तो क्यों है ? भला है तो क्यों है ? यह जीवन क्या है ? जगत क्या है ? मैं इस दुनिया आया हूँ तो मुझे क्या करना है, यह जिन्दगी कितने दिन की है ? जब मनुष्य यह शरीर छोड़ जाता है तो कहाँ जाता है ? मर कर मिट्टी का पुतला यहीं खत्म हो जाता है या कोई ऐसा तत्व है, जो मर कर भी 'अमर' रहता है ?
इन सब बातों पर विचार, चिन्तन करना मनुष्य का स्वभाव हैं । वह सदा-सदा से इन बातों पर विचार / मनन करता आया है । यह विचार ही 'दर्शन' कहलाता है । दर्शन की उत्पत्ति जिज्ञासा से होती है । जिज्ञासु मनुष्य दार्शनिक बनता है ।
भारत की मिट्टी की यह विशेषता है कि यहाँ का मानव प्रारम्भ से ही जीवन और जगत के विषय में सोचता आया है । साधारण से साधारण दीखने वाला व्यक्ति भी यहाँ 'आत्मा' 'परमात्मा' लोक, परलोक कर्म और पुनर्जन्म की बातें करता है । जीवन की गति प्रगति का रहस्य जानने को वह सदा से उत्सुक रहा है। चिन्तन की यह उत्सुकता मनुष्य को ज्ञान-विज्ञान और अध्यात्म के क्षेत्र में आगे बढ़ाती है ।
भारत के ऋषि-मुनि चिन्तनशील, मननशील तो रहे हैं पर साथ ही आत्म- दृष्टा भी रहे हैं । जो सिर्फ जीव और जगत के विषय में सोचता है, वह दार्शनिक होता है, किन्तु जो अपने विषय में भी सोचता है, वह आध्यात्मिक होता है ।
भारत का दार्शनिक सिर्फ दार्शनिक नहीं, किन्तु 'आध्यात्मिक' भी रहा है । वह संसार के विषय में सोचता हुआ अपने विषय में भी सोचता है ! संसार में कोई मनुष्य सुखी है, बुद्धिमान है, सुन्दर है, और सर्वत्र उसका सम्मान होता है, तो कोई मनुष्य दुखी है, निरा बुद्ध है, दीखने में भी कुरूप है, पद-पद पर उसे अपमान और असफलता का सामना करना पड़ता है - यह सब भेद क्यों है, किस कारण है इस तथ्य पर जब चिन्तन किया जाता है तो मनुष्य की 'आत्मा' सामने आती है । कर्म, पर विचार आता है । जिस आत्मा ने जैसा कर्म किया है, पुण्य या पाप, शुभ या अशुभ जैसा आचरण किया है, उसी के अनुसार जीवन में उसके परिणाम या फल मिलते हैं । जैसा बीज बोया जाता है उसी प्रकार का फल भी लगता है ।
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