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'दूसरा फल: गुरु-पर्युपास्ति : गुरु-सेवा
है, वही सच्चा राजा है। 'पंचतन्त्र' में राजा की विशेषताएँ तथा उपयोगिता हुए कहा है
"राजा बन्धुरबन्धूनां, राजा चक्षुरचाक्षुषाम् । राजा पिता च माता च, सर्वेषां न्यायवर्तिनाम् ॥”
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अर्थात् राजा अबन्धुओं का बन्धु है, राजा अन्धों का नेत्र ( मार्गदर्शक ) है, राजा सभी न्यायवर्ती व्यक्तियों का माता-पिता है। 'नीतिवाक्यामृत' में कहा है“पर्जन्यमिव भूतानामाधारः पृथवीपतिः ।”
- राजा प्राणियों के लिए मेघ की तरह आधारभूत है । आगे फिर कहा है“न राज्ञः परं दैवतम्।”
- राजा से बढ़कर कोई देवता नहीं है । राजा ही अच्छे और बुरे का ज्ञान रखने वाला होता है। राजा अपनी प्रजा पर अनुशासन करता है। जिस प्रकार राजा अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से काम लेता है, अच्छा कार्य करने पर उन्हें प्रोत्साहन देता है। उसी प्रकार गुरु सभी शिष्यों को अनुशासन में रखते हुए संयम के लिए प्रोत्साहित करते हैं, संयम में दृढ़ करते हैं ।
गुरु भ्राता भ्राता का अर्थ है - भाई । जिस प्रकार भाई-भाई का ख्याल रखता है, उस पर विपत्ति आने पर आगे होकर सामना करता है, सुख-दुःख का साथी होता है, खून का रिश्ता होने के कारण संवेदना अनुभव करता है। उसी प्रकार गुरु शिष्य को भ्राता के समान अपना जानकर उसके सुख-दुःख में सहायक बनता है । विपत्ति के समय में रक्षा करता है।
गुरु रवि - रवि का अर्थ है - सूर्य । जो दिन है, उसे हमने सूर्य के नाम से पुकारा है। भारतीय ज्योतिष में सूर्य को अधिकार और शक्ति का प्रतीक माना है । सूर्य को प्रकाश-पुंज और जीवनी-शक्ति का स्रोत कहा गया है। संसार के जितने भी वृक्ष हैं, वे सब सूर्य के प्रभाव से ही हरे-भरे, पल्लवित - पुष्पित रहते हैं । सूर्य की ऊर्जा पाकर ही खेतों में धान लहलहाता है, सब वनस्पतियाँ और औषधियाँ विकसित और वृद्धिंगत होती हैं, वृक्षों पर मधुर फल झूमते हैं, प्राणियों को जीवनी-शक्ति प्राप्त होती है। सूर्य को कई नामों से पुकारा जाता है। जैसे-दिन का करने वाला 'दिनकर' है। जो दिन का स्वामी है, उसे 'दिनेश' कहते हैं। जो पोषण करने वाला है, उसे 'पूषा' कहते हैं । जो स्वयं प्रकाशमय है, उसे 'भास्वान्' कहते हैं । जो संसार को या धरती के कण-कण को विकस्वर करता है, मुस्कराहट देता