________________
दूसरा फल: गुरु- पर्युपास्ति : गुरु-सेवा *
८७ *
प्रति श्रद्धा नहीं है, विनय-भक्ति नहीं है, समर्पण भावना नहीं है, वह सोचता है कि गुरु मेरे पर अत्याचार कर रहे हैं, वे प्यार करने के बदले मुझे डाँट फटकार करते हैं, मेरे किये हुए कर्मों की नुक्ताचीनी करते हैं, मेरे सामने मेरी कभी प्रशंसा नहीं करते, उल्टे आलोचना ही करते हैं, इसलिए वे मेरे प्रति द्वेष और दुर्भाव रखते हैं, वे मेरे शत्रु हैं। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा है
"जं मे बुद्धाणुसासंति, सीएण फरूसेण वा । मम लाभोत्ति पेहाए, पयओ तं पडिसुणे ॥ अणुसासणमोवायं, दुक्कडस्स. य चोयणं । हियं तं मण्णइ पण्णी, वेसं होइ असाहुणो ॥ "
प्रबुद्ध गुरुदेव मुझ पर कठोर या मृदु वचन एवं मन्द या कठोर अनुशासन का प्रयोग करते हैं। उसमें मेरा ही लाभ है, यह मानकर बुद्धिमान् एवं विनीत शिष्य ध्यानपूर्वक उनकी बातें सुने और उन्हें आश्वासन दे कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा या जैसा आप कहते हैं, वैसा ही होगा। गुरु द्वारा किये जाने वाले कठोर अनुशासन के प्रयोग और दुष्कृत (अकृत्य ) के लिए की गई प्रेरणा ( वाचिक भर्त्सना) को देखकर प्राज्ञ शिष्य गुरु को अपना हितैषी मानता है। जबकि असाधु (दुर्जन या मूढ़) शिष्य उन्हें द्वेषी समझता है।
जिन शिष्यों के हृदय में गुरु के प्रति श्रद्धा-भक्ति या विनय - बहुमानता होती है, वह गुरु के द्वारा दिये जाने वाले कठोर दण्ड एवं वचनों को अपने में रहे हुए दोषों, बुराइयों और दुर्वृत्तियों को निकालने और स्वयं को सुधारने का उपाय समझकर उन्हें महान् उपकारी मानते हैं। वे समझते हैं कि जिस तरह कुम्भकार घड़ा बनाते समय जब तक वह कच्चा होता है, तब तक ऊपर से लकड़ी के डण्डे से थपथपाता रहता है, लेकिन अन्दर वह हाथ भी रखता है, ताकि घड़ा फूट न जाए, उसी तरह गुरु अपने सुविनीत शिष्य को ऊपर से फटकारते हैं, दण्ड भी देते हैं। कठोर वचन भी कह देते हैं, लेकिन उनके अन्तर में शिष्य के प्रति लबालब प्यार होता है। कहा भी है
"गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है, घड़-घड़ काढ़े खोट । अन्दर से रक्षा करे, बाहर मारे चोट ॥"
- जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी लेकर उससे घड़ा, सुराही, कुल्हड़ आदि अनेक मिट्टी के बर्तन बनाता है, उसी प्रकार गुरु शिष्य की पात्रता के अनुसार उसमें गुणों का समावेश करता है।