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पद्म-पुष्प की अमर सौरभ *
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी स्पष्ट शब्दों में कहा- जो व्यक्ति सत्य को जानता है तथा मन, वचन, काया से सत्य का आचरण करता है, वह परमात्मा को पहचानता है। एक दिन वह मुक्ति को भी वरण कर सकता है। सत्य का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। सत्य के बारे में और क्या लिखूँ ? अल्प प्रज्ञा के द्वारा जो समझा, वो लिख दिया है। पूजा के दूसरे फूल की चर्चा है। सत्य को जीवन में धारण करना ही भगवान की पूजा है। शास्त्रकार अब आगे अचौर्य नाम के तीसरे फूल की चर्चा कर रहे हैं।
३. अचौर्य
कोई भी साधक गाँव में, नगर में, अरण्य में थोड़ी या बहुत, छोटी या बड़ी, सजीव या निर्जीव किसी भी वस्तु को बिना दिये हुए न ले, स्वामी की आज्ञा के बिना न ले, न दूसरों को इस प्रकार अदत्त लेने की प्रेरणा दे और न अदत्त ग्रहण का अनुमोदन करे, वह अचौर्य जैनशास्त्रों में अदत्तादान एवं अस्तेय शब्द आते हैं, इनका अर्थ एक ही है ।
आचार्य सोमप्रभसूर ने 'सिन्दूर प्रकरण' में अस्तेय का महत्त्व बताते हुए कहा है—‘“जो अदत्त ग्रहण नहीं करता, सिद्धि उसकी अभिलाषा करती है, समृद्धि उसे स्वीकार करती है, कीर्ति उसके पास आती है, किसी भी प्रकार की सांसारिक पीड़ा उसे नहीं होती, सुगति उसकी स्पृहा करती है, दुर्गति उसे निहारती भी नहीं और विपत्ति उसका परित्याग कर देती है । "
‘योगदर्शन' में महर्षि पतंजलि ने कहा है
"अस्तेय प्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानं।”
- अस्तेय व्रत का पालन करने से उसे सर्वरत्न प्राप्त होते हैं, उसे समस्त अनुकूलताएँ प्राप्त होती हैं । अचौर्य महाव्रत के अभाव में मानव, मानव न रहकर दानव बन जाता है। वह पाशविक जीवन जीने लगता है। यदि मानव-समाज में इस प्रकार पाशविकता पनपेगी तो सर्वत्र अराजकता का साम्राज्य हो जायेगा । अस्तेय व्रत की इसलिए आवश्यकता है कि वह मानव को दिव्य जीवन जीने के लिए उत्प्रेरित करता है। स्वयं को आवश्यकताओं को वह न्याय-नीति से और योग्य पुरुषार्थ से प्राप्त करने की प्रेरणा देता है । अचौर्य महाव्रत की रक्षा के लिए श्रमण को पुनः पुनः आज्ञा ग्रहण करने का अभ्यास करना चाहिए। गृहस्थ की कोई भी चीज वह बिना उसकी आज्ञा के ग्रहण न करे और जितने समय तक रखने की वह आज्ञा दे, उतने समय तक ही रखे। यदि किसी वस्तु के लिए गृहस्थ आज्ञा भी