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एवं महाविदेह ये तीन क्षेत्र कर्मभूमि है।
अकर्मभूमि = यहाँ युगलिक का जन्म होता है। यहाँ असि, मसि, कृषि आदि कुछ नहीं होते । धर्म भी नहीं होता। कल्पवृक्ष यहाँ के लोगों की इच्छा पूरी करते हैं। ये जीव अल्प कषाय वाले एवं मरकर देवलोक में जाने वाले होते हैं। (विशेष वर्णन कालचक्र में बताया जाएगा।)
सात क्षेत्रों में से हिमवंत, हरिवर्ष, रम्यक, हैरण्यवंत ये 4 क्षेत्र तथा देवकुरु और उतरकुरु को मिलाने पर कुल 6 अकर्मभूमियाँ है ।
नदियों के उत्पत्ति स्थान एवं निपात कुण्ड
छ: कुलधर पर्वत के मध्यभाग में छ: द्रह है। इसमें से नदियाँ निकलकर शिखर के अग्र भाग पर मगरमच्छ के मुख समान आकार वाली वज्ररत्न की बनी जीभ रुप परनाले में से अपने (नदी के ) नाम वाले वज्ररत्नमय निपात कुण्ड में गिरती हैं । उस समय पानी का प्रवाह रत्नों की प्रभा से मिश्रित होने के कारण. मोती के हार के समान अतिरमणीय लगता है। कुण्ड में से ये नदियाँ अपने-अपने क्षेत्र में बहकर पूर्व-पश्चिम लवण समुद्र में मिल जाती है। कुल नदियाँ 90 होने से इनके निपात कुण्ड भी 90 है । महाविदेह की विजयों में बहती गंगा-सिंधु एवं रक्ता रक्तवती नदियाँ एवं 12 अंतर नदियाँ पर्वत से नहीं निकलती हैं। परन्तु पर्वत की तलेटी में उस विजयादि में आये हुए कुंड में से ही निकलती हैं। इसलिए इन नदियों के मगरमच्छ के मुख समान परनाले नहीं होते। ये परनाले 7 क्षेत्रों की 14 महानदियों के ही होते हैं।
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भरत क्षेत्र के छः खण्ड
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लवण समुद्र
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वाढ्य पर्वत
A तमिस्रा गुफा
B खंड प्रपाता गुफा
C सिंधु प्रपात कुण्ड
गंगा प्रपात कुण्ड D मागध तीर्थ
E वरदाम तीर्थ F प्रभास तीर्थ