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________________ चाणक्य ने उसके हाथ में वीणा पकड़ाई। दोनो कलाओं का अद्भुत मिलन हुआ। इसी के साथ-साथ दोनों कलाकार भी परस्पर एक-दूसरे की कलाओं के प्रति आकर्षित हो गए। देखते ही देखते उनका यह आकर्षण राग में कब परिवर्तित हो गया उन्हें पता ही नहीं चला। धीरे-धीरे कोशा के घर जाना स्थूलिभद्र का नित्यक्रम बन गया था एवं कोशा भी उन पर आसक्त बन गई थी। एक दिन ऐसा आया जब राग के अति गाढ़ संबंधों में वश बने स्थूलभद्र अपने माता-पिता, घर-बार को छोड़कर कोशा के यहाँ रहने लगे। उनके छोटे भाई श्रीयक ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की । परंतु प्रेम-पाश में जकड़े स्थूलिभद्र को यह सीख काम नहीं आई। इस तरफ एक बार राजसभा में वररुचि नामक ब्राह्मण ने नये श्लोक बनाकर राजा की स्तुति की। राजा की काव्यमय स्तुति सुनकर पूरी सभा वररुचि की प्रशंसा करने लगी। परंतु महामंत्री शकडाल मौन रहे। यह देख राजा ने ब्राह्मण को ईनाम नहीं दिया। यह क्रम नित्य ही चलता रहा। अपनी मेहनत पर पानी फिरता देख वररुचि मंत्रीश्वर की पत्नी लाछलदेवी से मिले। उन्हें मीठे वचनों से खुश कर मंत्रीश्वर द्वारा राज्यसभा में उसकी प्रशंसा करवाने का आग्रह किया। दूसरे दिन अपनी पत्नी के अत्याग्रह से मंत्री ने वररुचि की प्रशंसा की। राजा ने उसे ईनाम देकर सम्मानित किया। अब वह प्रतिदिन ही राजा से ईनाम प्राप्त करने लगा । मिथ्यात्व की अभिवृद्धि के साथ राजभंडार खाली हो जाने की आशंका से मंत्री इस अनुचित प्रथा के अंत का उपाय ढूँढने लगे। ऐसे में उन्हें अपनी पुत्रियों की स्मरण शक्ति उपयोगी लगी। दूसरे दिन अपनी पुत्रियों को समझाबुझाकर शकडाल मंत्री राजसभा में ले आए। जैसे ही वररुचि ने आकर श्लोक सुनाए। तब शकडाल ने उन सभी श्लोकों को पुराना घोषित किया। जब वररुचि ने इसका प्रमाण माँगा। तब शकडाल ने सभा के बाहर खड़ी अपनी सातों पुत्रियों को क्रमशः बुलाकर उनके मुख से वही श्लोक बुलवाए। इससे वररुचिं का सम्मान मिट्टी में मिल गया। पूरी सभा में अपमानित होकर वह वहाँ से चला गया। परंतु तब से वह सतत शकडाल मंत्री से बदला लेने की ताक में रहने लगा। कुछ दिनों बाद श्रीक के विवाह का प्रसंग आया। श्रीयक महाराजा नंद का अंगरक्षक होने के नाते महामंत्री ने इस प्रसंग पर महाराजा को हथियारादि भेंट करने का विचार किया । इसलिए उन्होंने अपने घर पर ही गुप्त रुप से शस्त्र बनवाने प्रारंभ किये। इस तरफ मंत्रीश्वर की किसी दासी द्वारा वररुचि को यह समाचार मिले। अत: उन्होंने मौके का फायदा उठाते हुए कुछ बालकों को एक श्लोक सिखाया और उन्हें राजमहल के आस-पास यह श्लोक गुनगुनाने की शिक्षा दी। एहु लेड नवि जाणइ जं शकडाल करेई, 120
SR No.002438
Book TitleJainism Course Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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