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________________ देवलोक में उत्पन्न हुए। (3) तीसरे भव में मैं देवलोक से च्यवकर चित्रगति विद्याधर हुआ तब वह रत्नवती नामक मेरी स्त्री हुई। (4) चौथे भव में हम दोनों पुन: चौथे देवलोक में उत्पन्न हुए। (5) वहाँ से च्यवकर पाँचवे भव में मैं अपराजित राजा हुआ तब वह मेरी प्रियमती रानी हुई। (6) छठे भव में हम दोनों ग्यारहवें देवलोक में गए। (7) वहाँ से मैं शंख राजा तथा वह मेरी सोमवती रानी बनी। (8) आठवे भव में हम दोनों अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए। (9) वहाँ से च्यवकर मैं नेमि बना तथा वह राजीमती बनी। इतने भवों की प्रीति के कारण उसे मुझ पर इतना मोह है।'' इस तरह प्रभु से नव भवों का वर्णन सुनकर श्री कृष्ण की शंका का समाधान हुआ। राजीमती की दीक्षा तथा रथनेमिको प्रतिबोध: नेमिकुमार के तोरण से लौट जाने के बाद राजीमती दिन-रात उन्हीं के चिन्तन में डूबी रहने लगी। अंत में उन्होंने भी अपने प्राणनाथ के मार्ग का अनुसरण करना ही श्रेयस्कर समझा। नेमिनाथ प्रभु का जब गिरनार में पदार्पण हुआ। तब राजीमती सहित कई राजकुमारियों ने भी संयम ग्रहण किया। साथ ही नेमिप्रभु के सांसारिक भाई रथनेमि ने भी संयम जीवन स्वीकार किया। ___एक बार साध्वी राजीमती गिरनार पर्वत पर भगवान को वंदन करने जा रही थी , उस समय मार्ग में बारिश होने लगी। इससे राजीमती के सारे वस्त्र भीग गए। उन्हें सूकाने के लिए वह एक गुफा में गई। जहाँ पहले से ही रथनेमि मुनि काउसग्ग ध्यान में खड़े थे। राजीमती इस बात से अनभिज्ञ थी। गुफा में जाकर उसने अपने सारे वस्त्रों को सुकाया। राजीमती को निर्वस्त्र देख रथनेमि का मन चलायमान हो गया। उसने कहा, "राजीमती! तुम इस युवावस्था में इतना तप-त्याग कर व्यर्थ ही अपनी सुंदरता को नष्ट कर रही हो। तुम मेरे साथ शादी कर लो। हम दोनों सुख पूर्वक भोग-विलास करेंगे।' यह सुनते ही राजीमती वस्त्रों से अंगोपांग को ढूंककर धीरज पूर्वक दृढ़ता से बोली, “अरे रथनेमि! तुम्हें धिक्कार है। जो तुम वमन की हुई वस्तु को वापस खाने की इच्छा रखते हो। मैं नेमिप्रभु द्वारा तजी हुई हूँ और मेरे साथ भोग करने की इच्छा से तुम वमित पदार्थ को पुन: खाने की इच्छा वाले हो। अगंधन कुल के सर्प तिर्यंच होते हुए भी एक बार छोड़े हुए विष को पुन: ग्रहण नहीं करते। अत: तुम तो तिर्यंच से भी नीच बन गए हो। श्री नेमिनाथ के भाई ऐसे आपके लिए यह कुकार्य शोभनीय नहीं है। आप अपने पाप की आलोचना कर पुनः संयम में स्थिर बनें। अन्यथा दुर्गति में जाने के बाद वहाँ आपको बचाने वाला कोई नहीं होगा'। इस प्रकार वचन रुपी अंकुश से रथनेमि मुनि के मन रुपी हाथी को राजीमती ने स्थिर किया। वहाँ से रथनेमि ने प्रभु के पास जाकर शुद्ध आलोचना की। अंत में शुद्ध चारित्र-जीवन का पालन कर उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। राजीमती ने भी संयम जीवन में
SR No.002438
Book TitleJainism Course Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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