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________________ इस प्रकार धन गाढ़ने के लिए बार-बार खड्डा खोदते देखकर अनुपमा ने कहा-यदि ऐसे ही धन को नीचे गाढ़ोगे तो हमें भी नीचे दुर्गति में जाना पड़ेगा। यदि धन को ऊपर लगाया जाये तो हम भी ऊपर सद्गति में जायेंगे। वस्तुपाल ने कहा-भाभी। मैं आपका तात्पर्य समझा नहीं। आप क्या कहना चाहती हो ? धन को ऊपर कहाँ लगाया जाए? अनुपमा ने कहा-याद कीजिए अपने भाई को दी हुई प्रतिज्ञा को। अर्थात् इस धन से आबू पर विशाल मन्दिर बनाया जाए। अनुपमा की बात सुनकर वस्तुपाल-तेजपाल ने आबू पर मंदिर बनवाने का कार्य शुरु करवाया। उस समय अत्यधिक ठंडी होने से कारीगरों के हाथ एकदम ठंड़े हो जाते थे, अतः वस्तुपाल ने अंगीठियों (सगड़ियों) की व्यवस्था करवाई। शिल्पकार शोभनराज ने अपने 1500 कारीगरों को काम पर लगाया। प्रत्येक कारीगर के पीछे एक आदमी सेवा करने वाला और एक आदमी दीपक पकड़ कर खड़ा रहे, ऐसी व्यवस्था की गई। तीन वर्ष तक दिन-रात सतत काम चला। देखते ही देखते मंदिर का कार्य पूर्ण हो गया। वस्तुपाल-तेजपाल ने मंदिर का कार्य देखकर कारीगरों से कहा - " मंदिर में जो नक्काशी की है उसमें से जितना संगमरमर का चूर्ण निकालोंगे उसके वज़न जितनी चाँदी तोलकर दी जायेगी।" यह घोषणा होते ही जोरदार हथौड़ियों की ध्वनि गूंजने लगी। अल्प समय में काम पूर्ण हो गया। दोनों भाईयों ने घोषणानुसार कारीगरों को चूर्ण के वजन जितनी चाँदी ईनाम में दी। पुन: निरीक्षण करने पर दोनों भाईयों ने सोचा इसमें से और भी कुछ निकल सकता है, अत: उन्होंने फिर कारीगरों से कहा- “अब इस नक्काशी से जितना चूर्ण निकालोंगे उसके वज़न जितना सोना तोलकर दिया जायेगा" कारीगरों ने नक्काशी को और बारीक करने का कार्य शुरु किया। कार्य पूर्ण होने पर घोषणानुसार ईनाम दिया गया तथा पुन: घोषणा की-‘अब इस नक्काशी से जितना चूर्ण निकालोंगे उसके वज़न जितने मोती तोलकर दिये जायेंगे।' कारीगर पुन: लगन व मेहनत से कार्य में जुट गये। ___कार्य पूर्ण होने पर दोनों भाइयों ने घोषणानुसार ईनाम दिया तथा फिर कहा - "इससे भी बारीक नक्काशी करोंगे और जितना चूर्ण निकालोंगे उसके अनुसार आपको रत्न तोलकर दिए जायेंगे।" तब कारीगरों ने कहा- “सेठजी यदि आप अभी रत्न तो क्या रत्न की माला भी दे दे तो भी हम इस नक्काशी से कुछ भी नहीं निकाल सकते।" इस प्रकार उस समय में कुल 12 करोड़ 53 लाख सोना मोहरें व्यय कर वस्तुपाल-तेजपाल ने अति उल्लास के साथ भव्य मंदिर का निर्माण करवाया । बड़े भाई की स्मृति में मंदिर का नाम रखा गया 'लुणिग वसही'। आज सात सौ वर्ष बीत जाने के बाद भी वह जिनालय मजबूती से खड़ा है। जिसकी शिल्प कलाकृतियों की भव्यता की मिसाल दुनिया में नहीं मिलेगी। उसके आगे तो 003
SR No.002438
Book TitleJainism Course Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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