________________
दान का महत्त्व और उद्देश्य
३९
आहारदान के साथ ही औषधिदान, ज्ञानदान, अभयदान ये चारों प्रकार के दान अक्षय सुख की प्राप्ति कराते हैं । 'दाणं पूया मुक्खम्' कहकर श्रावक का प्रथम और मुख्य कृत्य 'दान' देना ही है जिसमें श्रम और धन का सर्वोत्कृष्ट उपयोग कहा गया है। वास्तव में समीचीन दान के बिना न तो श्रमण चर्या मुनि धर्म चल सकता है न श्रावक का धर्म-कर्म पुरुषार्थ ही संभव है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों ही पुरुषार्थ दान की आधारशिला पर ही खड़े होते हैं । अर्जन और विसर्जन, दिन और रात की तरह साथ चलते हैं। जन्म और मरण जीवन के दो छोर हैं उसी प्रकार आय - व्यय - धर्म की स्थिति है स्वभाव है आय (अर्जन) न्यायोपार्जन ही श्रेष्ठ है । उसी प्रकार व्यय का भी सदुपयोग हो यही उत्तम है । “अनुग्रहार्थ स्व स्याति सर्गोदानं' 'स्व' और 'पर' दोनों को लाभप्रद हो ऐसा व्यय 'दान के रूप में सम्भव है । '
मानव संसारी प्राणी से ही 'मुक्तजीव' बनता है । अतः उस मुक्त मार्ग का पाथेय दान ही है। आज जैन समाज सर्वाधिक दान देने वालों में गिना जाता है परन्तु उसका यह दान विषमता ही अधिक बढ़ा रहा है । इस अक्षय तृतीया के दान पर्व पर हमें आत्मभावलोकन अवश्य करना चाहिए । यह अक्षय पुण्यपखि हमें शाश्वत सुख की अक्षम नीधि देने आता है अतः दान-पुण्य का अमृत बीज वपन कर ही लेना चाहिए ।
दान पर्व शुचि काल,
अक्षयतीज महान,
महापुण्य श्रेयस विमल,
दान मोक्ष सोपान ।
ज्ञान दान के प्रदाता तीर्थंकर प्रभु और ज्ञान दान के पात्र गणधरादि देव हैं। इसलिये दान को साक्षात् रत्नत्रयरूप मोक्ष मार्ग बतलाया है । इतना ही नहीं कितने ही आचार्यों ने इस दान को आत्मधर्म बतलाया है
I
सच तो बात यह है कि जिस प्रकार धर्मतीर्थ संसार समुद्र से अनंत प्राणियों को पार उतारकर निर्वाण-पद को प्राप्त करा देता है, परमात्मपद को प्राप्त करा देता है उसी प्रकार दानतीर्थ भी जीवों को परमात्मपद शीघ्र ही प्राप्त करा
देता है । इसीलिये दान का माहात्म्य लोकोत्तर है, अवर्णनीय है और पंचाश्चर्य का
1