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त्याग, ग्रन्थि का : दान, ग्रन्थ का
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भारतीय संस्कार में धर्म सर्वप्रथम और सर्वोच्च संस्कार है । बिना धर्मसंस्कार के, हमारा पूरा जीवन असंस्कृत ही रह जाएगा । वस्तुतः जीवन में उपयुक्त अच्छे संस्कार ही 'धर्म' के नाम से पहचाने जाते हैं ।
धर्म-संस्कार को हमारे ज्ञानीओं ने चार विभागों में बांट दिया है - दान, शील, तप और भाव । देखा जाता है कि इन चारों धर्मों में प्रथम क्रम दान धर्म को दिया गया है |
दान का मतलब है देना । देना यानी कि त्याग करना । कुछ त्याग किये बिना दान नहीं हो सकता । लेकिन दान देने वाला केवल स्थूल या बाह्य वस्तु का ही त्याग करता है, ऐसा नहीं । वह कुछ अभ्यन्तर ग्रंथिओं का भी त्याग करता है। बिना भीतरी त्याग के, बाहरी त्याग प्राय: असंभवित है । जैसे कि एक व्यक्ति, दूसरे व्यक्ति को कोई वस्तु देता है, तो उस देने वाले के चित्त में उस वस्तु के प्रति जो ममत्व था, राग था, उसको वह छोड़ देता है; और साथ ही साथ, जिस व्यक्ति को वह दे रहा है, उस व्यक्ति के प्रति अरुचि या द्वेष-दुर्भाव को भी वह छोड़ देता है । इन दो तत्त्वों को बिना छोड़े वह बाह्य वस्तु का दान कभी नहीं दे पाएगा । तो सार यह निकलता है कि दान देने से जैसे परिग्रह का त्याग होगा, वैसे ही अंशतः राग-द्वेष का भी त्याग अवश्य होगा । और यही कारण है कि 'दान' को धर्म का दर्जा मिला है। जो करने से राग-द्वेष न्यून होते हैं उसी को धर्म कहा जाता है, और 'दान' करने में इस शर्त का पालन, उक्त रीत से सोचें तो बराबर हो जाता है
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