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दान विचार
सराहनीय एवं अनुकरणीय है । राष्ट्र संत विनोबा भावे ने कहा था दान देना बोने के समान है । एक दाना बोने से उसके हजार दाने पैदा हो जाते हैं ।
दान का मूल अर्थ है एक दूसरे की सहायता करना । दान करना आसान काम नहीं है । हर कोई दान नहीं कर सकता है । सम्पत्ति बहुतों के पास हो सकती है, पर उसका मोह छोड़ना सरल नहीं है । वस्तु पर से जब तक ममता न छूटे, तब तक दान नहीं किया जा सकता। ममता को जीतना ही दान है ।
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भगवान महावीर ने बहुत सुन्दर शब्दों का प्रयोग किया है - मूधादायी और मूधाजीवी । दान वही श्रेष्ठ दान है जिसमें दाता का भी कल्याण हो और ग्रहीता का भी कल्याण । दाता स्वार्थ रहित होकर दे और पात्र भी स्वार्थ शून्य होकर ग्रहण करें । वह दान, जिसके देने से दाता के मन में अहंभाव और लेने वाले के मन में दैन्यभाव न हो। इस प्रकार का दान विशुद्ध दान है, यह दान ही वस्तुतः मोक्ष का कारण है ।
धन का कमाना दुर्लभ नहीं धन का त्याग करना दुर्लभ है । स्वार्थ की संकीर्ण भावना कम करके, पदार्थ- परमार्थ के भाव विकसित करने के लिए गृहस्थ को दान का गुण अवश्य अपनाना चाहिए। दान, करुणा, सेवा परमार्थ के कार्यों से तत्काल आत्मा को शान्ति प्राप्त होती है । भोग और वासनाओं से छुटकारा पाकर त्याग का लाभ प्राप्त करना चाहिए। अपने स्वभाव में सद्गुणों को स्थान देना त्याग नहीं वरन् एक प्रकार का लाभ ही है । यही वह लक्षण है जो व्यक्ति को देव, मानव, ऋषि पद से सुशोभित करते हैं। मनुष्य अपने संकीर्ण स्वार्थ से ऊपर उठकर अपने सामाजिक दायित्वों को समझ कर अपने पास प्राप्त साधनों से, सम्पत्ति से समाज के विभिन्न वर्ग के लिए यथाशक्ति संविभाग करें । गृहस्थ श्रावक जो कुछ भी साधन, सम्पत्ति प्राप्त करता है । उनमें उसके परिवार पोषण के अलावा समाज के त्यागी वर्ग का हिस्सा है। दीन, दुखियों, दयापात्रों का हिस्सा है। श्रावक को उदारतापूर्वक अपने साधनों में से उनको यथाशक्ति दान देना चाहिए | अतिथि संविभाग व्रत का यही अभिप्राय है ।
शास्त्रों में कई प्रकार के दानों का उल्लेख है। जैसे अभयदान, अनुकंपादान, ज्ञानदान, सुपात्रदान ।