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________________ दान की विशेषता २६५ चाहिए । व्यास स्मृति में बताया है कि केवल अर्थ (धन) दे देने से कोई दाता नहीं होता, दाता होता है दूसरों को सम्मान देने से । जो दाता पात्र को सम्मानपूर्वक दान देकर, पात्रों की ओर से कोई आघात हो तो उसे समभावपूर्वक सहन करके दान धर्म रूप कर्त्तव्य की वृद्धि करता है, उसका दान भी सफल होता है, उसकी कीर्ति भी फैलती है। (३) निष्कपटता - दाता में किसी प्रकार का कपट या छल-छिद्र नहीं होना चाहिए, उसके स्वभाव में सरलता होनी चाहिए। कपटपूर्वक दिया गया दान उत्तम फलदायी नहीं होता । जब उस तथाकथित दाता का कपट प्रगट हो जाता है तो उसकी कीति भी धुल जाती है और साथ ही दान का फल भी नष्ट हो जाता है। (४) अनसूयता- दाता में ईर्ष्याभाव नहीं होना चाहिए । दाता बनना अपने धन या साधनों की शक्ति पर निर्भर है। अपनी हैसियत न देखकर दूसरों की देखादेखी प्रतियोगिता करना, दूसरों को नीचा दिखाने और स्वयं उच्च दानवीर कहलाने की दृष्टि से दौड़ में उतरना ठीक नहीं होता । बल्कि अपने से अधिक दान देने वाले या शक्तिहीन होने पर भी थोड़ा-बहुत दान करता हो, उसकी प्रशंसा करनी चाहिए । ऐसा ईर्ष्यारहित दाता ही दान को सफल करता है। (५) अविषादिता - दाता को अपने यहाँ अतिथि, साधु-संत या 'याचक आने पर किसी प्रकार से खिन्न नहीं होना चाहिए । दान देने से पहले खेद करने से और दान देने के बाद पश्चात्ताप करने से दानान्तराय कर्म का बन्ध हो जाता है। दानान्तराय कर्म का उदय तभी होता है, जब किसी व्यक्ति के पास धन और साधन होते हुए भी दान देने का उत्साह न हो, दान देता हुआ हिचकिचाता हो, दान का नाम भी जिसे अच्छा न लगता हों, या बहस करके दान देता हो। ऐसे दान से न देनेवाले को आनन्द आता है न लेने वाले को । इसलिए दान देने से पहले उत्साह हो, देते समय प्रसन्नता हो और देने के बाद भी हृदय में हर्ष हो, प्रमोद भाव हो, वही दाता दान का यथार्थ फल प्राप्त करता है। १. 'न दाता चार्थदानतः', '...दाता सम्भानदानतः ।' - व्यास स्मृति ५/५९-६०
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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