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________________ दान की विशेषता २५९ - भिक्षा में जो अन्न दिया जाता है, वह यदि आहार लेने वाले साधु के तपश्चरण, स्वाध्याय आदि को बढ़ाने वाला हो तो वही द्रव्य की विशेषता कहलाती है। मुनियों को जो भी वस्तु दी जाय, उसके लिए रयणसार में विशिष्ट चिन्तन दिया है - __ - हित, मित, प्रासुक, शुद्ध अन्न, पान, निर्दोष हितकारी औषध, निराकुल स्थान, शयनोपकरण, आसनोपकरण, शास्त्रोपकरण आदि दान योग्य वस्तुओं को आवश्यकतानुसार सुपात्र को देता है, वह मोक्षमार्ग में अग्रगामी होता है । औषधदान के विषय में देयद्रव्य का मुनिवरों को किस प्रकार दान देना चाहिए? इस विषय में कहा है - (१) मुनिराज की प्रकृति शीत, उष्ण, वायु, श्लेष्म या पित्तरूप में से कौन-सी है? कायोत्सर्ग या गमनागमन से कितना श्रम हुआ है ? शरीर में ज्वरादि पीड़ा तो नहीं है ? उपवास से कण्ठ शुष्क तो नहीं है ? इत्यादि बातों का विचार करके उसके उपचारस्वरूप दान देना चाहिए। (२) भगवतीसूत्र एवं उपासकदशा में भी कहा है - पासुक, एषणीय, कल्पनीय, अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, कम्बल, पादपोंछन, प्रतिग्रह (पात्र), पीठ, फलक (पट्टा), संथारक (घास का आसन), औषध, भैषज्य आदि १४ प्रकार के पदार्थ साधु-साध्वियों को देने योग्य हैं। श्रमणोपासक इन १४ प्रकार के द्रव्य साधु-साध्वियों को प्रतिलाभित करता (देता) हुआ विचरण करता है।" पुरुषार्थ सिद्धयुपाय और अमितगति श्रावकाचार में भी देयद्रव्य के सम्बन्ध में विवेक बताया है - __(३) जिन वस्तुओं के देने से राग, द्वेष, मान, दुःख, भय आदि पापों की उत्पत्ति होती है, वे पदार्थ दान देने योग्य नहीं है । जिन वस्तुओं के देने से १. दीयमानेऽन्नादौ प्रतिगृहीतुस्तपः स्वाध्याय परिवृद्धिकरणत्वाद् द्रव्यविशेषः । २. र. सा. २४ ३. राग-द्वेषासंयम-मद दुःखभयादिकं न यत्कुरुते । द्रव्य तदेव देयं सुतपः स्वाध्यायवृद्धिकरम् ॥ - पु.सि.उ. १७०
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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