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दान : अमृतमयी परंपरा निवारण कराकर प्राणियों में शान्ति एवं सुरक्षा की भावना पैदा करना ।" कई जगह जनरंजन के निमित्त पशुबलि या नरबलि की अथवा विवाह आदि प्रसंगों पर समाज में या जाति में प्राणियों के मास का भोज देने की कुप्रथा है । इस कुप्रथा को जब तक समाप्त नहीं कर दिया जाता, तब तक बेचारे बध्य पशुपक्षियों या मानवों के हृदय में भीति और आतंक फैला रहता है । जो दयालु अपने प्राणों की बाजी लगाकर उस कुप्रथा को समूल मिटाता है या मिटाने का सफल प्रयत्न करता है, उसका वह कार्य भी अभयदान की कोटि में ही आता है। गुजरात में कंटेश्वरी देवी के आगे नवरात्रि में दी जाने वाली पशुबलि की प्रथा को आचार्य हेमचन्द्राचार्य ने कुमारपाल राजा एवं प्रजा को युक्ति से समझाकर बन्द करवाई। भगवान महावीर एवं तथागत बुद्ध के युग में यज्ञों में होने वाली पशुबलि प्रथा का निवारण दोनों महापुरुषों ने तथा उनके श्रमणों ने बन्द करवाने का प्रयत्न किया है। पशुबलि प्रथा बन्द कराने में उन्हें अनेक संकटों का परिचय देना पड़ा है।
भगवान अरिष्टनेमि के युग में यादवों में वैवाहिक प्रीतिभोज के अवसर पर बरातियों को माँस खिलाने की भयंकर कुप्रथा थी। लेकिन करुणासागर भगवान अरिष्टनेमि ने दुलहा बनकर रथारूढ होकर विवाह के लिए जाते समय एक बाड़े में बन्ध पशु-पक्षियों को देखा, उनका आर्तनाद सुनकर नेमिकुमार का हृदय करुणा से द्रवित्त हो गया । सारथी से पूछने पर उन्हें पता लगा कि ये पशुपक्षी उनके साथ आये हुए बरातियों को भोजन कराने के लिए बन्द किए गए हैं। तब तो वे और भी अधिक दुःखित होकर सारथी से कहने लगे - "खोल दो बेचारे इन पशु-पक्षियों को । मेरे निमित्त से यह संहार श्रेयस्कर नहीं है।''और समस्त प्राणियों को अभयदान दिलवाकर वे तोरण पर पहुंचे बिना ही वापस लौटने लगे । बरातियों में खलबली मच गई। कारण पूछने पर सारथी ने पूर्वोक्त वृत्तान्त सुनाया । यादव लोग नेमिनाथ से सुनने को उत्सुक थे। उन्होंने उपयुक्त अवसर जानकर यादवों को इस कुप्रथा का परित्याग करने को कहा । तब से यादव जाति में मांसाहार बन्द हो गया । अभयदान का कितना ज्वलन्त उदाहरण है यह।
इसी प्रकार रोम में होने वाली नरबलि प्रथा को वहाँ के एक सन्त