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दान : अमृतमयी परंपरा चढ़ाना हो, उन्हें जीते जी माताजी के चरणों में चढ़ा दो। मन्दिर के द्वार बन्द कर दो। माताजी को अपनी इच्छानुसार भोग लेने दो। आन तक तुमने मुर्दो का भोग चढ़ाया है, अब जीवितों का भोग चढ़ाओ । पशुओं के अक्षत देह को माता के चरणों में चढ़ाओगे तो वह विशेष प्रसन्न होगी।" बात उचित थी, प्रयोग सुन्दर था । इसी दिन रात को माताजी के मंदिर में जीवित पशुओं को भर दिया गया। सभी दरवाजे बन्द कर दिये गये । मंदिर के बाहर सभी भक्तजन भजन करते हुए रात्रि जागरण करने लगे। सप्तमी का सुनहला प्रभात ! सूर्य का प्रतिबिम्ब माताजी के मंदिर के स्वर्ण-कलश पर पड रहा था। मंदिर के द्वार पर जनता खचाखच भरी हुई थी। सभी यह देखने को उत्सुक थे कि रात.को बलि चढ़ाये हुए पशुओं का क्या हुआ । गुर्जरेश्वर की आज्ञा होते ही मंदिर के द्वार खोले गये। मंदिर की दमघोंट हवा में घबराये हुए पशु बें-बें करते हुए बाहर निकल पड़े। पूर्ण प्रेमभक्तिपूर्वक माता को नमन करके कुमारपाल ने कहा – “प्रजाजनों ! बलि की किसको जरूरत है ? माता को या पुजारियों को? माँ तो माँ है, यह अपने निर्दोष
और मूक बालकों के प्राण ले सकती है, भला? मांसलोलुप मनुष्य माता के नाम से क्रूर हिंसा करके बलि चढ़ाता है और स्वयं खा जाता है। देवी दयालु है, वह पशुबलि नहीं चाहती । अतः आज से माताजी के आगे पशुबलि बन्द ।" प्रजा के नेत्रों में कुमारपाल राजा की अहिंसापूत वाणी सुनकर प्रसन्न थी, पुजारियों के मुख पर खिन्नता थी।
__यह हेमचन्द्राचार्य के द्वारा ज्ञानदान का चमत्कार था, जिससे वर्षों से चली आई हुई हिंसक कुप्रथा को बन्द करा दिया ।
अब हमें लौकिक ज्ञान के तीसरे पहलू पर गहराई से विचार करना है। यद्यपि व्यावहारिक शिक्षण, अध्यापन या विद्या का दान जिस ज्ञान से जीवनपरिवर्तन हो जाये या जो शास्त्रीय ज्ञान आत्मा-अनात्मा तथा तत्त्वों का यथार्थ बोध करा दे, ऐसे सम्यग्ज्ञान की बराबरी तो नहीं कर सकता । फिर भी व्यावहारिक ज्ञान के साधनों में विद्यालय, विद्यालय की सारी व्यवस्था, स्वयं पढ़ना, दूसरों से अध्ययन कराना, छात्रवृत्तिदेना, विद्यार्थियों में चरित्र-निर्माण तथा धर्मश्रद्धावृद्धि का ध्यान रखना आदि सब व्यवस्थाएँ अपेक्षित होती है । गृहस्थ भी इस प्रकार का व्यावहारिक ज्ञान पाकर धार्मिक और आध्यात्मिक ज्ञान