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दान के भेद-प्रभेद
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तथा जिसके प्रकट होने पर तीनों लोकों के प्राणी उत्सव की शोभा मनाते हैं।'
. केवलज्ञान तो दूर की बात है, श्रुतदान = शास्त्रज्ञान देने पर श्रुतकेवली तो साक्षात् हो जाता है। जैसा कि सागारधर्मामृत में कहा है - "श्रुतात्स्यात् श्रुतकेवली ।" - शास्त्रदान (ज्ञानदान) देने से दाता श्रुतकेवली हो जाता है।
यह है अलौकिक ज्ञानदान का लेखा-जोखा जो साधु-साध्वियों द्वारा साधु-साध्वियों को अथवा सद्गृहस्थ विद्वानों, शास्त्रज्ञों या श्रद्धाशील शास्त्रदानियों द्वारा दिया जाता है और जो महाफलदायी हैं। _ज्ञानदान के एक मुख्य पहलू अलौकिकं ज्ञान अर्थात् आत्मज्ञान, (आध्यात्मिक ज्ञानदान) पर अपन ने विचार किया । वास्तव में ज्ञान स्वयं ही एक अलौकिक वस्तु है, किन्तु पात्र और विषयभेद के कारण उसके दो पहलू हो गये हैं। जिस ज्ञान द्वारा सीधा आत्म-दर्शन अथवा आत्म-दृष्टि प्राप्त होती है वह अलौकिक ज्ञान है और जिस ज्ञान द्वारा व्यावहारिक बुद्धि का विकास एवं विस्तार होता है और फिर हिताहित का भान होता हो वह लौकिक ज्ञान है। अब हम ज्ञानदान के दूसरे पक्ष-लौकिक ज्ञानदान पर विचार करेंगे । यद्यपि इसका क्षेत्र भी काफी व्यापक है और जीवन में लौकिक ज्ञानदान भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
__लौकिक ज्ञानदान के भी अलौकिक ज्ञानदान की तरह तीन मुख्य पहलू हैं - . (१) किसी विद्वान या तत्त्वज्ञ द्वारा कोई ऐसी मार्मिक बात कह देना, जिससे उस
व्यक्ति को एकदम प्रेरणा मिल जाये और वह एकदम बदल जाये । (२) शास्त्र, जिनवचन या धर्मग्रन्थ का वाचन करके ज्ञानदान देना या धार्मिक
ज्ञान सिखाना-पढ़ाना। (३) व्यावहारिक ज्ञान में दक्ष बनाना या पाठशाला, विद्यालय, छात्रालय या
उच्चतम विद्यालय खोलना-खुलवाना, विद्यादान देना-दिलाना, जिससे १. व्याख्याता पुस्तकदानमुन्नतधियां पाठाय भव्यात्मनां ।
भक्त्या यत्क्रियते श्रुताश्रयमिदं दानं तदाहुर्बुधाः ॥ सिद्धेऽस्मिन् जननान्तरेषु कतिषु त्रैलोक्यलोकोत्सवश्री कारिप्रकटीकृताखिलजगत् कैवल्यभाजोजनाः ॥७/१०॥ - प.प.