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दान : अमृतमयी परंपरा
औषधदान का स्वरूप चार प्रकार के दानों में 'आहारदान' का प्रथम नम्बर है, जीवन धारण की दृष्टि से भी वह सर्वप्रथम आवश्यकता है, आहारदान के बाद औषधदान का क्रम आता है। इसमें भी अलौकिक और लौकिक दोनों दृष्टियाँ है। यदि मनुष्य बीमार है; किसी रोग से पीड़ित है तो उसे आहार की रुचि भी नहीं होगी, उस समय उसे आहार देना बेकार होगा। उस समय उसे एक मात्र चिकित्सा की आवश्यकता है, जो उसे स्वस्थ एवं रोगमुक्त कर सके । इसलिए औषधदान भी अतीव महत्त्वपूर्ण है।
आचार्य वसुनन्दी ने औषधदान का सुन्दर लक्षण बताते हुए कहा है -
- उपवास, व्याधि, परिश्रम और क्लेश से परिपीडित जीव को जानकर अर्थात् देखकर शरीर के योग्य पथ्यरूप औषधदान भी देना चाहिए ।
किसी श्रमण या श्रमणी अथवा मुनि एवं आर्यिका आदि त्यागी के शरीर में पूर्व के अशुभ कर्मोदय से कोई व्याधि, रोग, पीड़ा या असाता पैदा हो जाय उस समय दयालु एवं श्रद्धाशील श्रावक-श्राविका (सद्गृहस्थ) का कर्तव्य है कि वे उनका यथायोग्य उपचार करावें । उन्हें यथोचित पथ्य के अनुरूप आहार देना, उनका योग्य इलाज कराना, औषध देना या दिलाना, उन्हें चिकित्सक को बताकर योग्य उपचार कराना आदि सब रोग निवारण के उपाय अलौकिक औषधदान के अन्तर्गत आते हैं।
सेवाभावी सद्गृहस्थ या वैद्य, डाक्टर अथवा हकीम सेवाभाव से रुग्ण साधु-साध्वियों का इलाज करता है, उनकी भलीभाति चिकित्सा द्वारा सेवा करता है, उनके यथोचित पथ्य आदि का प्रबन्ध करता है, वह प्रायः कर्मों की निर्जरा करता है अथवा महान पुण्य का उपार्जन करता है। उसका प्रत्यक्ष फल भी सागारधर्मामृत में बताया है -
- औषधदानं से दाता को आरोग्य मिलता है।
इसी प्रकार आचार्य अमितगति ने अमितगति श्रावकाचार में औषधदान का फल बताते हुए कहा है -