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दान के भेद-प्रभेद
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का योग नहीं मिलता । तब का क्या उपाय है - आहारदान से सुफल प्राप्त करने का ? यह जैन इतिहास के एक ज्वलन्त उदाहरण द्वारा समझाते हैं
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केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद भगवान् ऋषभदेव अष्टापद पर्वत पर पधारे । भरत चक्रवर्ती को ज्ञात होने पर वे भगवान के दर्शनार्थ तैयार हुए । मुनियों को आहारदान देने की भावना से प्रेरित होकर भरत पकापकाया भोजन गाड़ियों में भरकर अपने साथ ले चले। भगवान के दर्शनान्तर भरत चक्रवर्ती ने उनसे भोजन ग्रहण करने की प्रार्थना की। किन्तु भगवान ऋषभदेव ने राजपिंड मुनियों के लिए अकल्पनीय है, कहकर वह भोजन लेना अस्वीकृत कर दिया । इस पर भरत को बहुत ही खिन्नता हुई । निराश भरत को इन्द्र ने आकर समझाया, आश्वस्त किया और कहा " इस नैमित्तिक भोजन का उपयोग
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स्वधर्मी गृहस्थों को खिलाकर करेंगे । इन्द्र के कथनानुसार भरत चक्रवर्ती ने उस आहार का उपयोग स्वधर्मी गृहस्थों को भोजन कराने में किया । भरत चक्रवर्ती ने वहाँ एक भोजनशाला का निर्माण करवाया, जिसमें कई धर्मनिष्ठ सद्गृहस्थ भोजन करते थे। इस प्रकार भरत चक्रवर्ती ने भगवान ऋषभदेव के द्वारा आहार लेने से इन्कार करने पर आहारदान का महत्त्व समझकर धर्मनिष्ठ श्रावकों, माहणों और सद्गृहस्थों के प्रतिदिन भोजन कराने के लिए ही वहाँ भोजनशाला खोली थी । सचमुच आहारदान देना सर्व दानों में श्रेष्ठ है। दक्षिण-भारत के श्रेष्ठतम् धर्मग्रन्थ कुरुल में बताया है -
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"इदं हि धर्म सर्वस्वं शास्तृणां वचने द्वयम् । क्षुधार्तेन समं भुक्तिः, प्राणिनां चैव रक्षणम् ॥”
- क्षुधापीडितों के साथ अपना भोजन बाँटकर खाना और प्राणियों की रक्षा करना यह धर्मों का सर्वस्व है और धर्मोपदेष्टाओं के समस्त उपदेशों में श्रेष्ठतम् उपदेश है। आचार्य वसुनन्दी ने भी वसुनन्दी श्रावकाचार ने अलौकिक और लौकिक दोनों दृष्टियों से आहारदान को श्रेष्ठ बताया है -
अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य इन चारों प्रकार का श्रेष्ठ आहार
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पूर्वोक्त नवधा भक्ति से तीनों प्रकार के पात्रों को देना चाहिए ।'
१. असणं पाणं खाइमं साइयमिदि चउविहोवराहारो । पुव्वत्तणवविहाणेहिं तिविहपत्तस्स दायव्वो ।