SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दान के भेद-प्रभेद १८७ करने के इच्छुक को सर्वप्रथम अन्नदान करना चाहिए । अन्नदान का महत्त्व तो वस्तुतः तब प्रतीत होता है, जब चारों और दुष्काल की काली छाया उस प्रदेश पर पडी हो । अन्यथा, जिसके पास अन्न का भण्डार है, वह अन्नदान का महत्त्व सहसा नहीं जान सकता। जैन इतिहास का एक दुर्भाग्यपूर्ण पृष्ठ बताता है कि भगवान महावीर के निर्वाण के बाद भारतवर्ष में बारह वर्षीय दुष्काल पड़ा था । मनुष्य अन्न के दाने-दाने के लिए तरसते थे । सद्गृहस्थ श्रमणोंपासकों की स्थिति भी अत्यन्त दयनीय बनी हुई थी। ऐसे समय में सेरभर मोती के बदले सेरभर जुआर मिलना भी कठिन हो गया था। इसलिए कुछ साधु उत्तर-भारत से विहार करके दक्षिणभारत में चले गये थे। कहते हैं ७४८ साधुओं ने ऐसे समय निर्दोष आहार मिलने की सम्भावना क्षीण देखकर अनशन करके समाधिपूर्वक देह-त्याग कर दिया था। जो बचे थे, उन्हें भी ऐसे दीर्घकालिन दुर्भिक्ष के समय आहार मिलना दुर्लभ हो गया था । आहार पर्याप्त न मिलने से उनकी स्मृति कुण्ठित होने लगी । वे शास्त्रपाठों को विस्मृत होने लगे। - आचार्य वज्रस्वामी (दशपूर्वधर)ने जब अनशन किया, तब अपने शिष्यों से कहा था – बारहवर्ष का भयंकर दुष्काल पड़ेगा। किन्तु जिस दिन किसी गृहस्थ के यहा एक लाख रुपये का अन्न एक हाडी में पके, समझ लेना उसके दूसरे ही दिन सुकाल हो जाएगा। सचमुच १२ वर्ष का भयंकर दुष्काल पड़ा । लोग अन्न के दाने-दाने के लिए तरस रहे थे । यातायात के साधन उस समय इतने सुलभ नहीं थे कि बाहर से कहीं से अन्न मंगाया जा सके । अन्न के अभाव में मनुष्य और पशु अकाल में ही मरणशरण हो रहे थे । वज्रस्वामी के शिष्य विहार करते-करते सोपारक (जिसे आज 'सोफाला' कहते हैं) पहुंचे । वहाँ एक व्रतधारी श्रावक परिवार अन्न न मिलने से दुःखी हो रहा था। सोच रहा था - "अन्न के अभाव में हम बारहवें व्रत का पालन कैसे करें, कैसे अपने गुरुओं को दें ?" बड़ी मुश्किल से घर का मुखिया कहीं से एक लाख मुद्रा देकर एक हाँडी भर पक १. सर्वेषामेव दानानामन्नं श्रेष्ठमुदाहृतम् । पूर्वमन्नं प्रदातव्यमृजुना धर्ममिच्छता ।। – महाभारत
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy