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आ सर्व प्रकारना दानना विषयने सचोटपणे दर्शाववा तेमणे कोई संप्रदायनी पद्धति न लेता बधा ज दर्शनकारोना शास्त्रोना विधानोनो उदार चित्ते उपयोग को छे. तेथी दानधर्मनी विशदता अने महत्ता सात्त्विक अने तात्त्विक वाचकवर्गने माटे अत्यंत उपयोगी छे.
कथंचित दानधर्म विषे क्यांय मतभेद होय तो पण तेनी गौणता छे. कारण दान केवळ धनना ज माध्यम पूरतुं मर्यादित नथी. पण दरेक पोतानी शक्तिनो यथायोग्य उपयोग करी शके तेवी विविधता ज्ञानीओओ जणावी छे.
शास्त्रोक्त प्रमाणे दान अंतःस्थल सुधी काम करे छे ते तेमना ज शब्दोमां
जोईओ.
"जैन मनीषियों ने प्रायः 'दान' के स्थान पर 'संविभाग' शब्द का जो प्रयोग किया है, वह बड़ी सूझ-बुझ के साथ किया है। दान में समत्वभाव, समता और निष्पृहता की अन्तर्धारा बहती रहे यह आचार्यों का अभिष्ट रहा है जो संसार के अन्य चिन्तकों से कुछ विशिष्टता रखता है। देना 'दान' है, किन्तु दान 'व्रत' या 'धर्म' तब बनता है जब देने वाले का हृदय निःष्पृह, फलाशा से रहित और अहंकारशून्य होकर 'लेने वाले के प्रति आदर, श्रद्धा और सद्भाव से परिपूर्ण हो । सद्भाव तथा फलाशामुक्त दान को ही 'अतिथिसंविभागवत' कहा गया है।" . यद्यपि अq बने के दान करनारने माननी स्पृहा होय, अथवा अहंकारयुक्त होय अने दान ग्रहण करनारने मस्तक नमावी दान लेवू पडे. तो पण छती शक्तिओ दान न आपनार केवळ भोग विलासमां धननो उपयोग करवा करतां, अपेक्षा ते दान पण लेनारने माटे उपकारी छे. आपनारने त्यागनो लाभ छे.
वळी दानधर्मनी विशिष्टताओ दर्शाववा तथा वाचकवर्गने ते रसप्रद बने ते माटे तेमणे विविध दृष्टांतो आप्या छे जेथी वाचकवर्गने पण दान करवाना भाव थाय तेवू जणाय छे. ते दृष्टांतो शास्त्रोक्त, प्राचीन अने अर्वाचीन स्वदेश, परदेश ओम विविध प्रकारे दर्शाव्या छे ते मननीय छे.
जैनदर्शनमां श्रावकधर्मनी विशेषता बताववा माटे दान, शील, तप अने भाव चार धर्मनी प्रणालिमां दानधर्म प्रथम छे. जेनी पासे परिग्रहनी सांसारिक