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दान से लाभ
(iii) रंकजनों के दान से प्रेरणा :
कई बार मनुष्य के अन्तर में दान देने की शुद्ध प्रेरणा होती है, किन्तु उस प्रेरणा को वह दबा देता है । वह कभी तो मन को इस प्रकार मना लेता हैं कि मैं कहाँ धनवान हूँ । मुझसे बड़े-बड़े धनिक दुनियाँ में हैं, वे सब तो दान नहीं देते, तब मैं अकेला ही छोटी-सी पूँजी से कैसे दान दे दूँगा । पर वह यह भूल जाता है कि गरीब आदमी का थोड़ा-सा दान धनिकों को महाप्रेरणा देने वाला बन जाता है 1
तथागत बुद्ध एक बार भिक्षा के लिए जा रहे थे। रास्ते में एक जगह कुछ बच्चे धूल में खेल रहे थे । उनमें से एक बालक ने ज्यों ही तथागत बुद्ध को देखा, त्यों ही वह मुट्ठी में धूल भरकर लाया और बुद्ध के भिक्षापात्र में देने लगा। लोगों ने देखा तो उस बालक से वे कहने लगे. "गन्दे लड़के । यह क्या दे रहा है, महात्मा बुद्ध को ?" लड़का भाव-विभोर हो रहा था । बुद्ध ने अपना पात्र `'उसके सामने कर दिया और बच्चे के हाथ से धूल लेने लगे । उन्होंने उन लोगों को रोका, जो बच्चे को झिड़क रहे थें और धूल देने से मना कर रहे थे । उन्होंने कहा “यह बच्चा धूल देकर महात्माओं को देना तो सीख रहा है इसमें दान देने के संस्कार तो है ।" इस प्रकार गरीबों के दान से उनके बालकों में भी दान के संस्कार सुदृढ़ होते हैं ।
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जो गरीब हैं, वे भी यह न मानें कि मैं क्या दे सकता हूँ, मेरे पास दान देने को क्या है ? केवल धन का दान ही दान नहीं है; साधन, श्रम, बुद्धि, विचार आदि का दान भी है, उसकी कमी तो शायद गरीब से गरीब व्यक्ति के पास नहीं होगी ।
इसलिए बुद्ध ने गरीबों के दान को भी बहुत महत्त्व दिया है -
'अप्पस्मा दक्खिणा दिन्ना, सहस्सेन समं मता ।"
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अंगुत्तरनिकाय
थोड़े में से जो दान दिया जाता है, वह हजारों-लाखों के दान की बराबरी करता है । इसीलिए धनी के दान में स्वामित्व का बँटवारा हो जाता है, जबकि गरीब के दान से स्वामित्व विसर्जन की क्रान्ति सम्भव होगी । क्योंकि
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