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दान से लाभ
१२७ धर्म के आचरण से किसी भी जीव का अनिष्ट या अहित नहीं है। बल्कि इसमें सारे विश्व का हित और कल्याण निहीत है।
यही कारण है कि तीर्थंकर जैसे ज्ञानी पुरुष दीक्षा से पूर्व एक वर्ष में कुल ३ अरब ८८ करोड ८० लाख स्वर्ण-मुद्राओं का दान दे देते हैं ।
इस प्रकार उच्चकोटि का दान देकर वे संसार के समझ गृहस्थाश्रम का भी एक आदर्श प्रस्तुत कर जाते हैं।
तीर्थंकरो के वार्षिक दान से एक बात यह भी ध्वनित होती है कि नाशवान धन का त्याग करने से ही अविनाशी आत्मा की खोज हो सकती है। जो व्यक्ति इस नाशवान धन के मोह में पड़ा रहता है, इसे जरूरतमंदों को नहीं देता, वह धन उस प्रमादी व्यक्ति की इस लोक में या पर-लोक में रक्षा नहीं कर सकता, न ही धन कभी मनुष्य को तृप्त कर सकता है ।
उपनिषद में एक कथा आती है। याज्ञवल्क्य ऋषि अपने जमाने में बहुत अच्छे विद्वान् और ज्ञानी थे । एक दिन उन्हें विचार आया कि इस प्रवृत्तिमय जीवन से अब मुझे संन्यास लेकर केवल आत्मा का ही श्रवण, चिन्तन, मनन, निदिध्यासन करना चाहिए । अतः उन्होंने अपनी मैत्रेयी और कात्यायनी नामक दोनों पत्नियों को बुलाकर कहा - "लो, अब मैं संन्यास ले रहा हूँ, इसलिए संन्यास से पहले अपनी सारी सम्पत्ति तुम दोनों में बाँट देना चाहता हूँ।' ..
मैत्रेयी कुछ बुद्धिमती थी, उसने पूछा – "स्वामिन् ! आप जिस सम्पत्ति को हमें देकर संन्यास लेना चाहते हैं, क्या वह सम्पत्ति हमें अमरत्व प्रदान कर सकेगी?"
याज्ञवल्क्य - "नहीं, यह सम्पत्ति स्वयं नाशवान है, तब अमरता कैसे दे देगी ? बल्कि सम्पत्ति का जो अधिकाधिक उपयोग अपने या अपने स्वार्थ के लिए ही करता है, उसे वह पतन, विलासिता और अशान्ति की ओर ले जाती १. तिण्णेव कोडिसया, अट्ठासीई अ होति कोडीओ
असियं च सयसहस्सा एवं संवच्छरे दिण्णं ॥ - आव. नि. गा. २४२ २. वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमम्मि लोए अदुवा परत्था । -उत्तराध्ययनसूत्र ३. न हि वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः । - उपनिषद