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दान : अमृतमयी परंपरा
तो हजार हाथों से उसका दान कर दो।" यही कारण है कि तीर्थंकर बिना किसी भेदभाव के दान देते हैं। उनसे दान लेने के लिए सनाथ, अनाथ, पथिक, प्रेष्य, भिक्षु आदि जो भी आते थे, उन्हें वे मुक्तहस्त से दे देते थे। ज्ञातृधर्मकथांगसूत्र में तीर्थंकर मल्लि भगवती के वार्षिक दान के सन्दर्भ में वहाँ इस बात को स्पष्ट अभिव्यक्त किया है ।' वे अपने वार्षिक दान से संसार को यह भी अभिव्यक्त कर देते हैं कि आर्हती दीक्षा ग्रहण करने के बाद तो शील, तप और भाव धर्म के इन तीन अंगों का पालन तो व्यावहारिक रूप से हो सकता है, परन्तु दान धर्म का पालन व्यवहार रूप से नहीं हो सकता। इसलिए गृहस्थाश्रमी जीवन में रहते हुए ही दान दिया जा सकता है, इसी अन्त:प्रेरणा से दान दिया जा रहा है । गृहस्थाश्रम दान धर्म पर ही टिका हुआ है । दान धर्म की बुनियाद पर ही गृहस्थाश्रम की जड़ें सुदृढ़ होती हैं। इससे बढ़कर दान की और अधिक - प्रेरणा क्या हो सकती है । दान धर्म का आचरण करके हृदय का मुलायम, नम्र, निरभिमानी, निःस्वार्थ, निष्काम एवं निर्मल बनाकर हृदयभूमि पर आत्मधर्म का बीजारोपण करते हैं ।
तीर्थंकर महान पुरुष होते हैं । उनका प्रत्येक आचरण जगत् के लिए अनुकरणीय होता है । उनकी प्रवृत्ति का अनुसरण करने से किसी भी व्यक्ति का किसी भी प्रकार का अहित नहीं । गीता की भाषा में
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" यद्यदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥"
श्रेष्ठ पुरुष जिस-जिस वस्तु का आचरण करते हैं, अन्य साधारणजन भी उसी का आचरण करते हैं । वे जिस वस्तु को प्रमाणित कर जाते हैं, लोग उसी का अनुसरण - अनुवर्तन करते हैं ।
इस दृष्टि से तीर्थंकरो द्वारा आचरित दान धर्म की प्रवृत्ति विश्व के लिए, खासतौर से सद्गृहस्थ के लिए प्रतिदिन आचरणीय है, अनुसरणीय है । दान १. त तेणं मल्ली अरहा कल्लाकल्लिं, जाव मागहओ पायरासोत्ति बहूणं सणाहाण य अणाहाण य पंथियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरण्णकोर्डि अट्ठय अणूणात सय सहस्सातिं इमेयारूवं अत्थसंपदाणं दलयति,.... ।
- ज्ञातृधर्मकथा, श्रु. १, अ. ८, सू. ७६