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________________ . दान : अमृतमयी परंपरा दाता की दया की प्रशंसा करता है। मित्र को देने से परस्पर प्रेम बढाता है और शत्रु को दान देने से वह वैरभाव नष्ट कर देने में समर्थ है । भृत्य (सेवक) को दान देने से उसके दिल में भक्ति का प्रवाह पैदा करता है। राजा को देने से सम्मान दिलाता है। चारण को भाट आदि को देने से वह कीर्ति फैलाता है। पाश्चात्य विद्वान् एसोप का भी यही मत है कि - 'No act of kindness, no matter how small, is ever wasted.' कोई भी भलाई का कार्य, चाहे कितना ही छोटा हो, व्यर्थ नहीं जाता । सचमुच, दान कभी निष्फल नहीं जाता। सुपात्रदान से धर्म प्राप्ति : वास्तव में दान कभी व्यर्थ नहीं जाता। दान से एकान्त धर्म-प्राप्ति होती है । एक सुपात्र महामुनि श्रमण या त्यागी साधु को दान देने से वह धर्म का कारण बनता है। बशर्ते कि उस दान के पीछे कोई नामना, कामना, लोभ या स्वार्थ की भावना न हो । विधिपूर्वक दिया हुआ दान संवर और निर्जरा का कारण बनता है। उस दान में वस्तु महत्त्वपूर्ण नहीं होती, भाव ही महत्त्वपूर्ण होता है, भावों से ही कर्मों का क्षय होता है और भावों से ही आते हुए कर्मों का निरोध होता है। आचारांगसूत्र में इस विषय को अधिक स्पष्ट रूप से बताया गया है कि "केवलज्ञानी' (मतिमान) वर्द्धमान स्वामी ने बताया है कि समनोज्ञ व्यक्ति, समनोज्ञ (सुविहित) साधु को अशन, पान, खादिम या स्वादिम आहार-वस्त्रपात्र या शय्या प्रदान करे, उसे निमन्त्रित करे, परम आदरपूर्वक उसकी वैयावृत्य (सेवा) करे तो वह धर्म का आदानं (ग्रहण) करता है।" सुबाहुकुमार ने सुदत्त अनगार को भक्ति बहुमानपूर्वक प्रासुक एषणीय आहार दिया था, जिसके फलस्वरूप उसे अपार ऐश्वर्य तथा अन्त में मोक्ष प्राप्त होगा। यह है सुपात्रदान का महाफल, जिसका महत्त्व जैन, वैदिक, बौद्ध आदि १. धम्ममायाणह, पवेदियं वद्धमाणेण मइमया, समणुण्णे समणुणस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थ वा पायं वा सेज्जं वा पाएज्जा-णिमंतेज्जा कुज्जावेयावडियं परं आढायमाणे। - आचारांग, श्रु. १, अ. ८, उ. २
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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