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________________ ८० दान : अमृतमयी परंपरा लिए तैयार हुए तो गुरुजीने फिर रोका – "सुनो ! महल में भी तुम नहीं जा सकते। अब जैसे हो, उसी स्थिति में तुम्हें यहाँ से चले जाना चाहिए।" शिवाजी उसी स्थिति में बाहर चल दिए । स्वामीजी ने जाते-जाते कहा - "देखो, इस राज्य की सीमा में भी मत रुकना । स्मरण रहे, तुम राज्य को दान कर चुके हो।" "जो आज्ञा गुरुदेव !" - शिवाजी ने कहा । जब शिवाजी चलने लगे तो स्वामीजी ने रोककर पुनः पूछा - "सुनो ! तुम जा तो रहे हो, परन्तु भविष्य में निर्वाह की क्या व्यवस्था करोगे?" "जो भी हो जाए" - शिवाजी ने कहा । "फिर भी कुछ तो सोचा होगा।" "सोचा क्या है, कहीं मेहनत-मजदूरी तो मिलेगी। किसी की नौकरी करके ही अपना गुजारा चला लूँगा।" - विदा होते हुए शिवाजी बोले । "अच्छा तो नौकरी ही करनी है तो मैं तुम्हारे लिए एक बढ़िया नौकरी की व्यवस्था कर सकता हूँ।" "बडी कृपा होगी।" - शिवाजी का उत्तर था। "तुम यह राज्य तो मुझे दे ही चुके हो । अब मैं जिसे चाहूँ उसे इसकी देखरेख और व्यवस्था के लिए नियुक्त कर सकता हूँ। अब मुझे किसी योग्य व्यक्ति की इसके लिए तलाश करनी पडेगी, सो सोचता हूँ, तुम ही इसके लिए सबसे ज्यादा योग्य हो सकते हों । इस भाव से राज्य संचालन का दायित्व संभालना कि तुम केवल सेवकमात्र हो । राज्य मेरी अमानत है । वस्तुतः तुम इसके स्वामी नहीं हो।" और इसके बाद शिवाजी को कभी कोई झंझट नहीं हुई। स्वामीभाव से नहीं, पर सेवकभाव से राज्य के खर्च का उपयोग करते रहकर वे जीवन भर सहजता से इस दायित्व को निभाते रहे। स्व-परानुग्रह के साथ स्वत्व, स्वामित्व, अहंत्व और ममत्व का विसर्जन दान है। वास्तव में दान होता भी तभी है, जब व्यक्ति अपने स्वत्व को नष्ट कर देता है । इसीलिए स्मृतिकारों ने दान शब्द का लक्षण किया है - "स्व-स्वत्वध्वंसपूर्वक-परस्वत्वोपपत्यनुकूलत्यागः दानम् ।" - दान वह है, जिसमें अपने स्वत्व (स्वामित्व, अंहत्व, ममत्व) को नष्ट करके दूसरे के स्वत्व (स्वामित्व) की उपपत्ति के अनुकूल त्याग किया जाय।
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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