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________________ ७२ दान : अमृतमयी परंपरा तवा पड़ा था। पूनिया को इसका रहस्य समझते देर न लगी। उसने निःश्वास भरकर कहा- "अतिथि । तुमने तो जुल्म कर दिया ।'तुम तो चमत्कार कर गये, पर मैं अब नये तवे के लिए धन कहा से लाऊंगा ? तुम्हारा यह सोने का तवा मेरे किस काम का? श्रम के बिना प्राप्त धन धूल के समान है, मेरा नियम हैअपने श्रम द्वारा उपार्जित वस्तु का ही मैं दान कर सकता हूँ।" काफी अरसे के बाद अनेक स्थानों की यात्रा करके वे सिद्धपुरुष राजगृही आए और पूनिया के यहाँ महेमान बने ! तब पूनिया ने कण्डों और लकड़ियों के ढेर में रखा हुआ वह सोने का तवा लाकर अतिथि के सामने रखते . हुए कहा- "लो यह अपना तवा ! मुझे नहीं चाहिए। आपको तो सद्भावना से मुझे मदद करने की सूझी होगी, पर मैं बिना महेनत का सोना लूँगा तो मेरी सोनेसी शुद्ध बुद्धि काली हो जाएगी ? फिर तो मुझ में लेने की आदत पड जाएगी, अतिथि-सत्कार करने या दान करने की वृत्ति ही नहीं रहेगी। धनकुबेर हो जाने पर भी मुझे देने की नहीं, लेने की बात सूझेगी।" विद्यासिद्ध व्यक्ति ने पूनिया को नमस्कार करते हुए कहा – “धन्य हो पूनिया ! मैंने तो वर्षों में जाकर विद्यासिद्ध की है, परन्तु आपने तो सच्ची विद्या सिद्ध कर ली है।" आपसे मैं संतोष विद्या का लाभ प्राप्त कर सका हूँ, जो तीर्थ स्नान के लाभ से अनेक गुना बढ़कर है। तो, इस प्रकार अपनी न्यायोपार्जित शुद्ध कमाई में से योग्य व्यक्ति को देना महादान है । महादान में मुख्यता अंत:करण की पवित्र प्रेरणा की है, यदि यह परम्परानुसार बिना किसी विशेष भावना के दिया जाता है तो वह सामान्य दान कहा जाता है।
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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