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दान : अमृतमयी परंपरा . गवर्नर नियुक्त था, गुरुनानक की सेवा में अपनी श्रद्धांजलि अर्पण करना चाहता था । गुरुनानक को अपने दरबार में आने के लिए उसने आमंत्रण दिया । जब गुरुनानक ने उसका आमंत्रण अस्वीकार कर दिया तो मलिक भगो स्वयं मिठाई का थाल लेकर गुरु की सेवा में उपस्थित हुआ । मलिक भगो की भेंट की हुई मिठाई जब गुरुनानक के सम्मुख रखी गई, तभी लालो के यहाँ से बाजरे की सूखी रोटिया सेवा में उपस्थित की गई। नानक साहब ने मिठाई खाने से इनकार कर दिया। इससे मलिक भगो बहुत ही उदास होकर गुरु से इन्कार करने का कारण पूछने लगा । गुरुनानक ने मलिक भगो द्वारा भेंट की हुई मिठाई को अपनी मुट्ठी में कसकर दबाया, जिससे उसमें से खून की बूदे टपकने लगी और जब लालों की भेंट दी हुई सूखी बाजरे की रोटी को दबाया तो उसमें से दूध की धारा बहने लगी । उपस्थित जनसमुदाय के आश्चर्य का ठिकाना न रहा । गुरुनानक ने कहा - "न्यायपूर्वक अपने श्रम से कमाए हुए भोजन में से दूध की धारा बहती है, जबकि अन्याय-अत्याचार द्वारा प्राप्त मिठाई में से गरीबों का खून टपकता है।" इस घटना से मलिक भगो बहुत ही प्रभावित हुआ। उसने रिश्वत, झूठ-फरेब तथा अन्य नीच प्रवृत्तियों द्वारा धन इकट्ठा करने का पूरा वृत्तान्त जनता के सम्मुख कह सुनाया । उसी दिन से मलिक भगो अपने पुराने पेशे को छोड़कर गुरुनानक का परम भक्त हो गया और न्याय-नीतीपूर्वक श्रम करके अपने पसीने की कमाई खाने लगा और फिर गुरुनानक ने उसकी रोटी की भेंट स्वीकार की।
वास्तव में न्यायोपार्जित अन्न का दान ही श्रेष्ठ दान है, जिसके पीछे स्व-परानुग्रह की भावना भी होती है।
इसलिए दान की एक व्याख्या में कहा गया है - "रत्नत्रयवद्भ्यः स्वक्तिपरित्यागो दानं, रत्नत्रयसाधन दित्सा वा ।"
- "रत्नत्रयधारी साधु-साध्वी अथवा त्यागी पुरुषों को अपनी न्यायोपार्जित सम्पत्ति से प्राप्त आहारादि पदार्थ देना अथवा रत्नत्रय के पालन के लिए धर्मोपकरण देने की अभिलाषा करना ।" वास्तव में यह व्याख्या भी उपर्युक्त महादान के लक्षण में ही गर्भित हो जाती है।