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________________ ६७६ श्री श्वेतांबर जैन तीर्थ दर्शन : भाग -२ (मुंबई - नगरी मुंबई यह महाराष्ट्र का पाटनगर है। परंतु भारत का मुख्य और अंतराष्ट्रीय उद्योगनगर है । जिसके कारण मुंबई की बस्तीखूब बढ़ती रही है। बीते २० वर्षों में उसमें खुब बढोतरी व्यापार उद्योग के कारण जैनों की संख्या जहां १० घर थे वहां १०० और १००० घर बन गये हैं। मुंबई और उसके भाग जैनों से भरपूर बन गए हैं शहर और शहर के भाग में बहुत मंदिर होने के उपरांत बस्ती बढ़ने के कारण बहुत बरती होने के उपरांत भी जगह के अभाव में वह मंदिर से वंचित हैं। बड़ी-बड़ी बस्ती में भी अच्छे मंदिर की जगह आदि भी रखाती नहीं। भक्ति करने वाले भी शक्ति छुपावे नहीं तो बहुत सारी आराधनाओं के द्वारा मोक्ष मार्ग पुष्ट बन बन सकता है. ऐसे बहुत से संयोग है मुंबई द्वारा बाहर भी बहुतबहत कार्य भव्यों के द्वारा होते रहे हैं उसके साथ आत्मिक तत्त्व और परमात्म तत्त्व स्वरूप न पाने के कारण धर्म करने वाले स्वार्थ और मोह तथा दुःख को दर करने के प्रयोजन से धर्म तत्त्व को नहीं पा सकते। उल्टे ऐसे भावों द्वारा मंदिर में मानते बाधाओं द्वारा परमात्म तत्वों की आशातना करते हैं। और आगे बढ़कर स्वं की मान्यता के लिए माने देव-देवियां मंदिर में विराजमान कर परमात्मा के प्रकाश को पाने में विध्न खड़े करते हैं। और आत्म कल्याण के मार्ग में कि स्थान में मोह माया के भाव पैदा करते हैं। ऐसी वृत्ति का पोषण करने के लिए त्यागी महात्मा भी जैसी डिमान्ड वैसा माल जैसी स्थिति देखकर स्वयं परमात्मा के प्रतिनिधि है जिससे परमात्मा का मोक्ष मार्ग ही प्ररुपित करना चाहिए ऐसी जवाबदारी भूलकर भ्रम का मार्ग बताते हैं। और उसके द्वारा स्थान काय और महत्ता की स्थापना होता है जो परमात्मा प्राप्त कर निस्पृही विरागी और त्यागी होने के भाव पदा होने चाहिए उसके बदले वह परमात्मा के पास मंदिर में जाते लालसा राग और सुख की भावना पैदा होती है। और ऐसे आलंबन खड़े करती है। जो आत्मा की और श्री संघ की बदनसीबी है। कर्म तत्त्व के, जैन धर्म के महा सिद्धान्त की समध का अभाव सूचित करते हैं। आत्मा परमात्मा को पहचानती है तो उसकी दरिद्री या वैभवी जीवन की मांग नहीं रहती। इसलिए श्री कुमारपाल महाराजा भावना कर गए हैं कि धर्म सहित का दरिद्रपना मुझे मंजूर है परन्तु धर्म रहित का चक्रीपना मुझे न चाहिए। । ऐसी उज्जवल परंपरा और भावना द्वारा आत्मा परमात्मा पद का उपासक बने उसके लिए जिन मंदिर आदि आलंबन है । उस भाव को प्राप्त करो और परमात्मा मल्याकी सार्थकता सभी साधो यही अभिलाषा। आज मुंबई जैनियों के लिए सबसे प्रथम नंबर की नगरी है और जिससे मुबंई में जैनों की जो धर्मभावना, आराधना, भक्ति दिखती है वह विशिष्ट कोटि की हैं जिससे मध्य मुंबई में अनेक भव्य स्थान विकसित हए हैं। और मुंबई के भागों में भी भव्य मंदिरों के साथ सैंकडों धर्मस्थान शोभित हो रहे हैं। श्वेताम्बर तीर्थ दर्शन के लिए जानकारी और फोटो लेने गए प्रतिनिधि मंडल को जो मिल सके वो यहीं लिए गए हैं। किसी ने ना कहा, किसी ने फिर से भेजने का कहा, जिससे कितने ही अच्छे स्थानों के फोटो इतिहास नहीं ले सके, भविष्य में आयेंगे तो आगे की प्रति में जुड़ सकेंगे। मुंबई के मंदिरों की जो लिस्ट प्राप्त हुई है उसका इस पुस्तक में समावेश किया है। और नक्शे द्वारा मुख्य मंदिर बताने का प्रयास भी किया है। चांदलीया! जाजो प्रभुना देशमां, व वातलडी कहेजो संदेशमां, चांदलीया, कहेजो भरतमां दुःषमकाल थे, नथी केवली कोई आ देशमां, चांदलीया . आप बिराजो नाथ विदेह क्षेत्रमां, आवं केम करी आ वेशमां, चांदलीया. दर्शननी दिले आशा उभराये, पांख विना उडु कमे प्रदेशमां। चांदलीया . दश लाख केवली प्रभुजीनी पासे, म्हेर करी मोकलो अम देशमा । चांदलीया. कर्पूर अमृत गुरु विनति लखावे, प्रेमने प्यारा उपदेशमां, चांदलीया.
SR No.002431
Book TitleShwetambar Jain Tirth Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size75 MB
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