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सुना है मैंने कि एक अंधे आदमी ने किसी फकीर को कहा, मुझे रास्ते बता दें इस गांव के ताकि मैं भटकन जाऊं। मुझे ऐसी विधि बता दें ताकि मैं किसी से टकरा न जाऊं। मुझे ऐसे उपाय सुझा दें जिससे कि आंख वाले लोगों की दुनिया में मैं अंधा भी जीने में सफल हो सकूं। उस फकीर ने कहा, न हम कोई विधि बताएंगे, न कोई उपाय बताएंगे और न हम कोई मार्ग बताएंगे।
स्वभावतः, अंधा दुखी और पीड़ित हुआ । और सोचा भी नहीं था कि फकीर – करुणा जिनका स्वभाव है - ऐसा व्यवहार करेगा। कहा उसने कि मुझ पर कोई करुणा नहीं आती ?
फकीर ने कहा, करुणा आती है, इसीलिए न तो बताऊंगा मार्ग, न बताऊंगा उपाय, न बताऊंगा ऐसी विधि जिससे तू अंधा रहकर आंख वाले लोगों की दुनिया में जी सके। मैं तुझे आंख खोलने का उपाय ही बता देता हूं। और फिर उस फकीर ने कहा कि सीख लेगा इस गांव के रास्ते, लेकिन गांव रोज बदल जाते हैं। सीख लेगा इन आंख वालों के बीच रहना, लेकिन कल दूसरी आंख वालों के बीच रहना पड़ेगा। सीख लेगा विधियां, लेकिन विधियां सीमित परिस्थितियों में काम करती हैं, सदा नहीं। मैं तुझे आंख ही खोलने का उपाय बता देता हूं।
उपनिषद का यह ऋषि कहता है, विवेक रक्षा ।
संन्यासी के पास और कुछ भी नहीं है सिवाय उसके विवेक के । वही उसकी रक्षा है। न कोई नीति है, न कोई नियम है, न कोई मर्यादा है, न कोई भय है, न नर्क के दंड का कारण है, न स्वर्ग के प्रलोभन की आकांक्षा है। बस, एक ही रक्षा है संन्यासी की— उसका विवेक, उसकी अवेयरनेस, उसकी आंखें । इसे समझें ।
विवेक रक्षा |
इन दो छोटे शब्दों में बहुत कुछ छिपा है । सब साधना का सार छिपा है। एक ढंग तो है व्यवस्था
जीने का क्या करना है, यह हम पहले ही तय कर लेते हैं। कहां से जाना है, कैसे गुजरना है, यह हम पहले ही तय कर लेते हैं। क्योंकि हमारा अपनी ही चेतना पर कोई भरोसा नहीं। इसलिए हम सदा ही भविष्य का चिंतन करते रहते हैं और इसीलिए हम सदा ही अतीत की पुनरुक्ति करते रहते हैं। क्योंकि जो हमने कल किया था, उसी को आज़ करना सुगम पड़ता है, क्योंकि उसे हम जानते हैं, परिचित हैं, पहचाना हुआ है।
लेकिन संन्यासी जीता है क्षण में अभी और यहीं । अतीत को दोहराता नहीं, क्योंकि अतीत को केवल मुर्दे दोहराते हैं। भविष्य की योजना नहीं करता, क्योंकि भविष्य की योजना केवल अंधे करते हैं। इस क्षण में उसकी चेतना जो उसे कहती है, वही उसका कृत्य बन जाता है। इस क्षण के साथ ही सहज जीता है। खतरनाक है यह ।
इसलिए उपनिषद कहता है, विवेक ही उसकी रक्षा है।