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असार बोध, अहं विसर्जन और तुरीय तक यात्रा-चैतन्य और साक्षीत्व से
ही शिखा हो जाता है।
ऋषि ने कहा है, चैतन्यमय होकर संसार-त्याग ही दंड है।
चैतन्यमय होकर संसार-त्याग! क्रोध में भी संसार का त्याग होता है, दुख में भी संसार का त्याग होता है, चिंता में भी संसार का त्याग होता है, लेकिन वह संन्यास नहीं है। आपका दिवाला निकल गया है, बैंक्रप्ट हो गए हैं, संन्यास का मन होने लगता है कि संन्यास ही ले लें, संसार में कोई सार नहीं। कल तक बिलकुल सार था। और बैंक्रप्ट होने से संसार का सार कैसे सूख गया, कुछ समझ में आता नहीं। क्योंकि आपके बैंक्रप्ट होने या न होने पर संसार के रस की कोई निर्भरता नहीं है। फूल अब भी वैसे ही खिल रहे हैं, सूरज अब भी वैसा ही चल रहा है, जिंदगी अपना गीत अब भी वैसे ही गाए जाती है, नाच-रंग सब वैसा ही चल रहा है, सिर्फ आप दिवालिया हो गए हैं, तो आपको बड़ा विरस हो गया है।
रामकृष्ण कहा करते थे कि एक आदमी काली की पूजा के अवसर पर सैकड़ों बकरे कटवाता था, बड़ी पूजा करवाता था। फिर पूजा धीरे-धीरे उसने बंद कर दी। काली की पूजा के दिन अब भी आते, लेकिन उत्सव उसने समाप्त कर दिया। रामकृष्ण ने एक दिन उससे पूछा कि बात क्या है ? उसने कहा, अब दांत ही न रहे! तो रामकृष्ण ने कहा कि वह काली की पूजा चलती थी कि दांतों की? रामकृष्ण ने पूछा कि वह पूजा किसकी चलती थी? वह इतने बकरे कटते थे! हम तो यही समझे कि काली के लिए .कटते हैं। उसने कहा, आप बिलकुल गलत समझे। काली तो सिर्फ बहाना थी, कटते तो अपने ही लिए थे। अब दांत ही न रहे।
आपके दांतों के साथ सारी दुनिया बदल जाती है। संन्यास नहीं है लेकिन वह, वह तो केवल शिथिलता है। वह तो खंडहर हो जाना है। वह तो केवल हार जाना है, पराजित हो जाना है। वह तो जिंदगी ने खुद ही आपसे छीन लिया सब। संन्यास त्याग है और जब जिंदगी ही छीन लेती है, तब त्याग का क्या सवाल है? आप खुद ही बैंक्रप्ट हैं। जिंदगी ने आपको दिवालिया कर दिया। अब आप त्याग की बातें करें, बेमानी है। अब कोई अर्थ नहीं है। लेकिन आदमी होशियार है। ___मुल्ला नसरुद्दीन एक बैलगाड़ी में बैठकर किसी गांव के पास से गुजर रहा है। साथ में उसका मित्र है, वह भी दुकानदार है। डाकुओं ने हमला कर दिया। मुल्ला ने कहा, एक मिनट रुको। खीसे से रुपए निकाले, अपने साथी को कहा कि ये पांच हजार रुपए तुझे मुझे देने थे, ले। हिसाब पूरा हो गया। डाकुओं से कहा, अब जो तुम्हें करना है, करो। अब कोई डर न रहा। _ छिनने का भी मौका आ जाए, छिन जाने का भी मौका आ जाए, तो भी हम कोशिश करते हैं कि जैसे त्याग कर रहे हैं। लुट जाने का क्षण आ जाए, तो भी हम ऐसा दिखावा करते हैं कि हम लुटे नहीं, दान कर दिया है। ___नहीं, ऋषि कहता है, चैतन्यमय होकर जिन्होंने संसार को छोड़ा। चैतन्यमय होकर! दुखमय होकर नहीं, क्रोध से भरकर नहीं, परेशान-पीड़ित होकर नहीं, पूरे आनंदभाव से; लेकिन होश से जब उन्होंने देखा जिंदगी को कि वह बेकार है। यह बेकार होना किसी बाहरी कारण से नहीं, भीतरी बोध से।
यह बेकार होना दो तरह से हो सकता है। बहुत लोग कहते सुने जाते हैं कि धन में क्या रखा है। लेकिन अक्सर ये वे ही लोग होते हैं, जिनके पास धन नहीं होता। इनकी बात का कोई भी बहुत अर्थ नहीं है। यह
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