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________________ निर्वाण उपनिषद ली होंगी। जब आप कहते हैं, वृक्ष है, जितनी देर आपको कहने में लगती है, उतनी देर में वृक्ष कुछ और हो गया । है जैसी कोई अवस्था जगत में नहीं है। सब हो रहा है— जस्ट ए प्रोसेस । उपनिषद यही कह रहे हैं। उपनिषद का ऋषि कह रहा है, जगत अनित्य है। नित्य कहते हैं उसे, जो है, सदा है। जिसमें कोई परिवर्तन कभी नहीं, जिसमें कोई रूपांतरण नहीं होता। जो वैसा ही है, जैसा सदा था और वैसा ही रहेगा। निश्चित ही, जगत ऐसा नहीं है। जगत है अनित्य । लगता है कि है, और बदला जा रहा है, भागा जा रहा है। जगत एक दौड़ है – एक गत्यात्मकता, एक क्षणभंगुरता । लेकिन भ्रांति बहुत पैदा होती है। भ्रांति बहुत पैदा होती है, सभी चीजें लगती हैं, है । शरीर लगता है, है । वह भी एक धारा है, प्रवाह है। अगर वैज्ञानिक से पूछें, तो वह कहता है, सात साल में आपके शरीर में एक टुकड़ा भी नहीं बचता वही जो सात साल पहले था । सात साल में सब बह जाता है, शरीर नया हो जाता है। जो आदमी सत्तर साल जीता है, वह दस बार अपने पूरे शरीर को बदल लेता है। एक-एक सेल बदलता जाता है— प्रतिपल | आप सोचते हैं कि आप एक दफा मरते हैं, आपका शरीर हजार दफे मर चुका होता है। एक-एक शरीरका कोष्ठ मर रहा है, निकल रहा है शरीर के बाहर । भोजन से रोज नए कोष्ठ निर्मित हो रहे हैं । पुराने कोष्ठ बाहर फेंके जा रहे हैं - मल के द्वारा, और-और मार्गों से शरीर अपने मरे हुए कोष्ठों को बाहर फेंक रहा है। आपने खयाल नहीं किया होगा, नाखून काटते हैं, दर्द नहीं होता; बाल काटते हैं, दर्द नहीं होता । आपने खयाल नहीं किया होगा कि ये डेड पार्ट्स हैं, इसलिए दर्द नहीं होता। अगर ये शरीर के हिस्से होते, तो काटने से तकलीफ होती । ये मरे हुए हिस्से हैं। शरीर के भीतर जो कोष्ठ मर गए हैं, उनको फेंका जा रहा है बाहर बालों के द्वारा, नाखूनों के द्वारा, मल के द्वारा, पसीने के द्वारा । प्रतिपल शरीर अपने मरे हुए हिस्सों को बाहर फेंक रहा है और भोजन के द्वारा नए हिस्सों को जीवन दे रहा है। शरीर एक सरिता है, लेकिन भ्रम तो यह पैदा होता है कि शरीर है। आज से तीन सौ साल पहले तक पता भी नहीं था कि शरीर के भीतर खून गति करता है। तीन सौ साल पहले तक खयाल था कि शरीर के भीतर खून भरा हुआ है। क्योंकि शरीर के भीतर जो खून की गति है, उसका हमें पता तो चलता ही नहीं। और शरीर में खून नदी की तेज धार की तरह चल रहा है। जो आपके पैर में था, वह क्षणभर बाद आपके सिर में पहुंच जाता है। तीव्र परिभ्रमण चल रहा है खून का। उस परिभ्रमण का भी उपयोग यही है कि वह आपके मरे हुए सेल्स को शरीर के बाहर निकालने के लिए स्रोत का काम करता है, धारा का काम करता है। वह मरे हुए हिस्सों को बाहर फेंकने की कोशिश में लगा रहता है। इस जगत में भ्रांति भर पैदा होती है कि चीजें हैं। इस जगत में कोई चीज क्षणभर भी वही नहीं है, जो थी। सब बदला चला जा रहा है। इस परिवर्तन को ऋषि ने कहा है, अनित्यता । इस अनित्यता को कहने का कारण है, क्योंकि अगर हमें यह स्मरण आ जाए कि जगत का स्वभाव 140
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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