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पहला प्रश्न :
अप्प दीपो भव !
मैं तुम्हीं से पूछती हूं, मुझे तुमसे प्यार क्यों है ? कभी तुम जुदा न होओगे, मुझे यह ऐतबार क्यों है ?
पृछा है मा योग प्रज्ञा ने ।
प्रेम के लिए कोई भी कारण नहीं होता। और जिस प्रेम का कारण बताया जा सके, वह प्रेम नहीं है। प्रेम के साथ क्यों का कोई भी संबंध नहीं है। प्रेम कोई व्यवसाय नहीं है। प्रेम के भीतर हेतु होता ही नहीं । प्रेम अकारण भाव - दशा है। न कोई शर्त है, न कोई सीमा है।
क्यों का पता चल जाए, तो प्रेम का रहस्य ही समाप्त हो गया। प्रेम का कभी भी शास्त्र नहीं बन पाता। इसीलिए नहीं बन पाता । प्रेम के गीत हो सकते हैं। प्रेम का कोई शास्त्र नहीं, कोई सिद्धांत नहीं ।
प्रेम मस्तिष्क की बात नहीं है। मस्तिष्क की होती, तो क्यों का उत्तर मिल जाता । प्रेम हृदय की बात है। वहां क्यों का कभी प्रवेश ही नहीं होता ।
है मस्तिष्क का प्रश्न; और प्रेम है हृदय का आविर्भाव । इन दोनों का कहीं मिलना नहीं होता। इसलिए जब प्रेम होता है, तो बस होता है – बेबूझ, रहस्यपूर्ण ।
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